मंसूर

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— जरा-सा सिर आगे कीजिए, बस-बस, इतना ही। तो किस क्लास में पहुँच गए जनाब?

हर शहर-देहात की तरह हमारे कस्बे में भी नाई की कई दुकानें थीं। मंसूर मियाँ उनमें से एक थे। यदि यह नाम आपके सम्मुख एक टूटा-फूटा चेहरा, हलकी दाढी, सफेद कुर्ता-पाजामा लाता है, तो आप गलत समझ रहे हैं। असल में 30-35 वर्ष का युवा कितना सुदर्शन हो सकता है, मंसूर मियाँ इसकी मिसाल थे — स्वस्थ गठा हुआ शरीर, हमेशा सीधे तनकर खडा हुआ, कमीज पैण्ट के अंदर खोंस कर पहनी हुई, बाल सलीके से काढे हुए, दिन के किसी भी समय चेहरे पर आलस्य का नाम नहीं। जिस समय मैं पहली बार उनके पास गया, या यूँ कहिए कि ले जाया गया, उस समय लकडी और प्लाई का एक झोपडा-सा था। धीरे-धीरे उन्होंने तरक्की की और एक खासी-अच्छी जगमगाती हुई दुकान खडी कर ली। हाँ, भगवान और भाग्य का साथ तो था ही, साथ ही उनकी कार्यकुशलता और वाचालता का भरपूर योगदान था। यही अंतिम-कथित गुण ही ग्राहकों को उनके पास खींचकर लाता था और बाँधे रखता था। हुआ यूँ था कि चार बरस की उम्र में हमेशा की तरह मैं अपने पुराने नाई के पास गया। भीड बहुत थी, तो उसने मुझे नगण्य जानकर अपने किसी तुच्छ शिक्षार्थी के हाथ सौंप दिया। प्रशिक्षु की कलाकारी का नमूना देखकर माँ बहुत क्रोधित हुईं और मंझली दीदी को झगडने के लिए भेजा। दीदी ने प्रदत्त कार्य पूरी कर्तव्यनिष्ठा से पूरा किया, लेकिन निहत केशों का पुनरूद्धार न कर सकीं। प्रायश्चित स्वरूप मुझे मंसूर मियाँ की दुकान पर ले गईं और पूछा कि इसका कुछ हो सकता है क्या।

— ज्यादा नहीं, बस चार लोगों के बीच शकल दिखाने लायक हो जाए। महीने भर की ही तो बात है। फिर तो बढ ही जाएँगे।
— जी, जी, क्यों नहीं। आप बैठिए।
— बस भइया, न जाने किस नौसीखिए के हाथ पकडा दिया, बेचारे की पूरी सूरत बिगाड दी। देखिए तो, बस आपके हाथ में है।

— जरा-सा सिर आगे कीजिए, बस-बस, इतना ही। तो किस क्लास में पहुँच गए जनाब?

उसके बाद जो बातों का सिलसिला शुरू हुआ, तो कभी खत्म नहीं हुआ। शायद जीवन में पहली बार मैं केशकर्तन के समय रोया नहीं। फिर कभी पुरानी दुकान पर गया नहीं, और मंसूर मियाँ का साथ छोडा नहीं। यह साथ तब तक रहा जब तक मैं उस कस्बे में रहा। अब तो अपनी घर-गृहस्थी गुटाकर नए कार्यस्थल में जम गए हैं, सो लगता नहीं कि फिर कभी उनसे मुलाकात हो पाएगी।

— फिर ऊपर आसमान में शूँ-शूँ, एक के बाद एक। हम डर गए, डर कर खटिया के नीचे छिप गए। ज़रा आँख बंद कीजिए। हमारी ख़ालाजान ने कहा, अरे डरने की कोई बात नहीं। अपने ही जहाज हैं, दुश्मनों से लडने जा रहे हैं। हाँ, अब आँख खोल लीजिए। ज़रा-सा दाहिनी तरफ़, बस-बस। अभी खदेड देंगे। देख लेना, हमारे जवान बहुत बहादुर हैं। ज़रा-सा आगे। हाँ। अरे हमारी ख़ालाजान बहुत नेक इंसान थीं। ख़ाला समझते हैं न, मौसी। मगर दुश्मन भी एकदम, बार-बार खदेडो, बार-बार आ जाए, आपके बालों की तरह। हा-हा-हा, आपके बालों की तरह . . . लीजिए, हो गया।

आश्चर्य की बात यह थी कि मंसूर मियाँ कभी थकते नहीं थे। उनके हाथ और ज़ुबान साथ-साथ चलते थे। बातों की पुनरावृत्ति नहीं होती थी, और विविधता भी अपरिसीम थी। भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम, पाकिस्तान के साथ युद्ध, और एक विषय जिस पर शायद प्रत्येक भारतीय विशारद होता है — राजनीति।

— मैं कहता हूँ कल्याण सिंह की इसमें कोई गलती नहीं थी, सारा जिम्मा राव का था। उसी ने कोई कदम नहीं उठाया। कल्याण सिंह क्या करता?
— अंकल, देर हो रही है।
— हाँ बस, हो गया। अरे महरबान, यह सरकार चलनी ही नहीं थी। मैंने पहले ही आपसे कह दिया था, कि चलेगी नहीं। हुआ क्या? देखा न आपने। नहीं चली न? अरे राजनीति मजाक है क्या? सब इतना आसान समझ रक्खा है!
— अंकल जल्दी . . .
— हाँ बेटा। अरे शर्मा जी, अबकी बडे दिनों बाद आए? आप ही कहिए, यह सब क्या चल रहा है? दो साल में तीन प्रधानमंत्री। अजी मैं कहता हूँ बहती गंगा है, आप भी हाथ धो डालिए, बन जाइए प्रधानमंत्री।
— अंकल पानी चला जाएगा . . .

— अरे आप बैठे क्यों हैं? आपका तो कब से हो गया। मैं तो कहता हूँ यह देश है ही राष्ट्रपति शासन के . . .

जेल से छूटे कैदी की तरह मैं भागा। अब एक महीने बाद फिर यही शोषण-मिश्रित मनोरंजन। इससे माँ भी परेशान थी-
— तू पूछ न अपने मंसूर भईया से, क्यों तेरे बाल इतनी जल्दी-जल्दी बढते हैं।
मंसूर मियाँ को इसमें कोई ख़ामी नज़र नहीं आई–

— अजी वो बाल ही क्या जो एक महीने में ही न बढ जाएँ। यही तो पहचान है अच्छी सेहत की। ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे।

अपने ग्राहकों को अच्छे से पहचानते थे मंसूर भाई। जब जनेऊ के बाद पहली बार उनकी दुकान पर गया, तो उन्होंने बडे प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरा। फिर भिंची हुई भौंहों के साथ प्रश्न किया–
— लगता है किसी और ने आपके बालों को हाथ लगाया है। मुण्डन वगैरह करवाया था क्या? जनेऊ?
— हाँ। आपने कैसे जाना?
— बर्खुरदार, बचपन से आपके बाल काट रहे हैं, पहचानेंगे नहीं?
— वाह।

— पहले आपके बाल भूरे थे, अभी देखता हूँ काले हैं। तो, चुरकी छोडनी है क्या?

सभी सम्प्रदायों के सभी रीति-रिवाज़ों से परिचित थे मंसूर मियाँ। तभी तो सर्वत्र स्नेह और सम्मान प्राप्त करते थे। ग्राहकों की सुरक्षा तथा स्वास्थ्य का भरपूर ध्यान रखते थे। उनकी ज़रा सी लापरवाही किसी का जीवन नष्ट कर सकती है, इस बात से वे पूर्णतः परिचित थे और अत्यधिक दायित्वपूर्वक तथा सतर्कता के साथ अपना कार्य करते थे। नया ब्लेड इस्तेमाल करने के लिए कभी भी उन्हें याद नहीं दिलाना पडा — आपके कुछ कहने से पहले ही वे स्वयं ब्लेड बदल दिया करते थे। एक लडका तो खुद नया ब्लेड खरीद कर लाता था, इस्तेमाल करने के लिए। मंसूर मियाँ ने कभी बुरा नहीं माना, जैसी किसी की पसंद, वैसा उनका काम।

बाल कटाने के लिए तो बाद में भी गए, और आज भी जाते हैं। लेकिन वैसा अनुभव फिर नहीं मिला। एक अजीब सी बात है हम लोगों में कि जब तक कोई व्यक्ति हमारे साथ रहता है, हम उसकी कद्र नहीं जानते, यहाँ तक कि उसके व्यवहार पर झल्ला भी उठते हैं। लेकिन जब वह हमारे साथ नहीं होता, और हो भी नहीं सकता, तो बस उसे याद कर-कर के आँसू बहाते रहते हैं। आजकल मैं जिस दुकान पर जाता हूँ, वह बडी ही परिष्कृत है। मालिक, उसके दो लडके और कारीगर मिलाकर अच्छा-खासा दल है कारोबार संभालने के लिए। सभी उपकरण उत्कृष्ट किस्म के हैं। साथ ही टी.वी. है जिसमें से सूत्रधार और संवाददाता चिल्ला-चिल्लाकर देश की बिगडती हुई समाज-व्यवस्था की ओर हमारी दृष्टि-आकर्षण करना चाहते हैं, और अपनी टिप्पणी व्यक्त करते हैं। मैं सोचता हूँ, इससे वे मंसूर भाई ही क्या बुरे थे। आप कहेंगे कि वे विषयों पर विशिष्ट जानकारी नहीं रखते थे। तो क्या यह संवाददाता रखते हैं? इनकी भाषा और भाव-भंगिमा से तो लगता नहीं। यहाँ तक कि किसी वरिष्ठ राजनेता अथवा प्रतिनिधि से साक्षात्कार करने की यथोचित शिष्टता भी नहीं। खैर, हमें क्या, आप बेहतर जानते होंगे। लेकिन मंसूर मियाँ ऐसे तो न थे। चाहे जो हो, उनकी आवाज़ में एक मीठापन, एक प्रेम सदैव उपस्थित रहता था। और हाँ, कभी भी वे वातावरण में अनावश्यक गांभीर्य नहीं आने देते थे। दूसरों की भावनाओं और विचारों के प्रति बडे ही संवेदनशील थे। ज़रा सा अंदेशा होता कि उनकी या अन्य किसी की बात आपको बुरी लग रही है तो वे तुरन्त बात को दूसरी ओर घुमा देते थे। मेरी जानकारी में उनकी दुकान में कभी किसी प्रकार का विवाद नहीं हुआ, यद्यपि सभी उपस्थित ग्राहक विविध विचार सरणी से संबंध रखते थे। और अप्रिय घटना तो एकदम नहीं हुई।

नहीं, एक बार हुई थी। मैंने मंसूर मियाँ को इतने गुस्से में कभी नहीं देखा था। एक सज्जन अपने बाल रंगाने आए थे। दुकान में बैठे युवा लडके यह देखकर आपस में एक प्रचलित डाई के विज्ञापन की पुनरावृत्ति करने लगे और कहकहे लगाने लगे। ग्राहक महाशय को यह बात सचमुच बुरी लगी, लेकिन बात बढने के डर से उन्होंने कोई प्रतिरोध नहीं किया। बस कुछ बुदबुदाकर रह गए। लेकिन मंसूर मियाँ अंदर ही अंदर सुलग रहे थे और ग्राहक के जाते ही कडी आवाज़ में लडकों को फटकारने लगे –
— आप सभी तो अच्छे घरों से तालुक्क रखते हैं, यह सब आप पर अच्छा नहीं लगता।
. . . वगैरह। लेकिन जो बात सबसे चुभने वाली थी —

— हम लोगों में छोटों और बडों में कभी दोस्ताना तालुक्कात नहीं होते हैं। हो ही नहीं सकते हैं।

मैं आज देखता हूँ, किस प्रकार वरिष्ठ लोग स्वयं को मित्रतापूर्ण व्यवहार-संपन्न दर्शाने की चेष्टा करते हैं। उनके कनिष्ठजन भी उनसे उसी प्रकार का व्यवहार करते हैं। साथ में सिगरेट-शराब पीना, कुछ तो गालियाँ भी देते हैं। अजीब-सा लगता है। शायद इन लोगों को कोई मंसूर मियाँ नहीं मिले जो इनका हाथ थाम लेते। जो समझा सकते कि मर्यादा और शिष्टता की सीमाओं का अतिक्रमण किए बिना भी मैत्री स्थापित की जा सकती है। मैत्रीपूर्ण व्यवहार का अर्थ यह नहीं कि मानवीय गरिमा को खण्डित कर दिया जाए। वरिष्ठता मात्र आयु का ही आँकडा नहीं है। यह प्रदर्शित करता है अनुभव को, ज्ञान को, व्यावहारिक शिक्षा और बुद्धिमत्ता को — जो सभी गुण हम लोगों के लिए सदैव पूजनीय रहे हैं। हमें अपने आदर्शों के स्तर तक पहुँचने की भरपूर चेष्टा करनी चाहिए; आदर्शों को खींचकर, घसीटकर अपने स्तर तक नहीं लाना चाहिए। साथ ही, यदि आदर्श के प्रति सम्मान का बोध ही न रहे, तो व्यक्ति उसका अनुसरण कर ही कैसे पाएगा, और उपलब्धि करेगा भी तो क्या? इसके अतिरिक्त, मनोरंजन और परिहास के लिए अश्लीलता अपरिहार्य तो नहीं है। मंसूर मियाँ तो लगातार बोलते थे, बिना रूके। फिर भी उन्होंने कभी किसी को गाली नहीं दी तथा विकृत शब्दों का उच्चारण भी नहीं किया। तो फिर क्या अपेक्षाकृत अल्पभाषी लोगों से और अधिक परिशीलन की अपेक्षा नहीं की जाती?

अस्तु, मंसूर मियाँ ने सिखाया कि हंसना, विनोद करना पूर्णतः संभव है — किसी को भी मानसिक आघात पहुँचाए बिना, किसी के धर्म, जाति, भाषा, संस्कृति पर टिप्पणी किए बिना। एक ऐसे सामाजिक वातावरण का निर्माण अवश्य ही किया जा सकता है जिसमें सभी लोग बिना किसी दुविधा या अडचन के, एक साथ बैठकर सुख-दुख बाँट सकें, हास-परिहास कर सकें, देश की राजनीति पर विचार-विनिमय कर सकें . . .

|| इति ||

टिप्पणी — आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि मेरी यह रचना हिन्दी साहित्यिक पत्रिका शब्दांकन में प्रकाशित हुई है ।

6 thoughts on “मंसूर

  1. Amit Misra

    मंसूर भाई जैसे लोग हमेशा रहे हैं, आज भी हैं, हर तरफ हैं। आवश्यकता है मात्र उन्हें पहचानने की। और उत्साहवर्द्धन करने की। आशा है आपने मेरा 28 सितम्बर 2015 का लेख “A Colourful World” पढा होगा —

    http://yashaskar.blogspot.in/2015/09/a-colourful-world.html

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