विश्वास

जब मैं सब्जी खरीदने गया तो दुकानदार का छोटा बच्चा अपनी माँ से साइकिल खरीदने की हठ कर रहा था और उसकी माँ उसे विभिन्न प्रकार से बहलाने का प्रयास कर रही थी । अंत में बच्चा पास में खडी मेरी साइकिल पर चढने लगा । खरीदारी करने के बाद जब मैंने साइकिल निकालनी चाही, तो बच्चा हटने के लिए तैयार न हुआ । मैंने बडे प्यार से कहा –

— चलो, तुम्हें अपने साथ ले चलूँ ।
— चलो । – बच्चे ने उत्तर दिया ।
— लेकिन वह बहुत दूर है ।
— कोई बात नहीं, चलो ।
— अभी ले जाएँगे, तो वापस नहीं छोडेंगे । रात भर रुकना पडेगा, सुबह ही आ पाओगे ।
— कोई बात नहीं, रुक लूँगा ।
— लेकिन वहाँ खाने को कुछ नहीं मिलेगा ।
— मैंने दिन में खा लिया था ।
लडके का हठ और दृढनिश्चय देखकर मैं दंग रह गया । आखिर में मैंने उससे कहा –

— ऐसे ही किसी की भी साइकिल पर बैठ जाओगे, कोई चलने को कहेगा, तो चल दोगे ? यह तो मैं हूँ, लेकिन अगर कोई उठा ले गया तो ?

लडका चुप रहा, फिर अपनी माँ के द्वारा भी वही बात कहे जाने पर साइकिल से उतर गया ।

लौटते समय मैं सोच रहा था, कितना सहज और विश्वासी मन होता है बच्चों का । व्यक्ति बाल्यकाल में अपरिचित पर भी विश्वास कर लेता है, और वयस्क होने पर परिचित तथा मित्र पर भी संशय करता है ।

photo credit: Nithi clicks A smile is happiness you’ll find right under your nose. via photopin (license)

4 thoughts on “विश्वास

  1. rupesh

    amit ji ap IIT bombay posting le lijiye , aap itna achcha likhte hai ki ho sakta hai aap kisi bollywood film ka hissa ban jaye. aapke lekh or shabdo ka chayan kisi sahityakar ki tarah hai

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    1. amitmisra Post author

      बहुत-बहुत धन्यवाद रुपेश । लेकिन क्या तुम्हें लगता है कि हिन्दी फिल्मों के संवाद या कहानी लिखने के लिए किसी विशेष योग्यता की आवश्यकता होती है ? 🙂

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