जीवन के चार दशक पूर्ण हुए । यदि मूल्यांकन किया जाए, तो कुछ खास खोया नहीं । वस्तुतः जो खोया, उसका खोना अवश्यम्भावी था । प्रकृति के नियमों को स्वीकार कर लेने में ही बुद्धिमत्ता है ।
वैसे देखा जाए, तो कुछ विशेष प्राप्त भी नहीं किया । यदि कोई पूछे कि जीवन की परम उपलब्धि क्या है, तो शायद विचार करने में समय लगेगा । किया तो बहुत कुछ है, सीखा भी बहुत कुछ है, किन्तु उन सभी का वास्तविक मूल्य क्या है, यह जानने का कभी प्रयास नहीं किया । वैसे मनुष्य की इच्छाओं का कभी अंत नहीं होता, एक वस्तु प्राप्त होते ही वह दूसरी प्राप्त करने की कोशिश में लग जाता है । कुछ लोग कहते हैं कि ध्येय की प्राप्ति, और सदा-सर्वदा नए-नए ध्येय स्थापित करते रहने से ही जीवन में गति आती है । अन्य कहते हैं कि इन्द्रियों के दमन में ही वास्तविक सुख है तथा मनुष्य को विषयों के पीछे जाने के स्थान पर आत्मिक सुख प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिए । सत्य कुछ भी हो, मेरे विचार से जीवन के अंत में ही नहीं, अपितु प्रत्येक क्षण में उपलब्धि की अनुभूति होनी चाहिए । समस्त जीवन दौडने में ही व्यतीत कर देना तो उचित प्रतीत नहीं होता । अभी तक क्या प्राप्त किया और जीवन-यात्रा में किस पडाव तक पहुँचे, इसका समय-समय पर हिसाब तो लेना ही चाहिए । साथ ही परम ध्येय के विषय में प्रारंभ से ही स्पष्ट होना श्रेयस्कर है ।
कहते हैं 40 वर्ष की आयु कन्या राशि वालों के जीवन में निर्णायक मोड लाती है । व्यक्तिगत एवं कार्यगत क्षेत्र में कई सकारात्मक बदलाव आते हैं । इनका मुख्य कारण कुछ नए निर्णय लेना ही होता है । आजीवन हम लोग अपने आसपास के वातावरण का पर्यवेक्षण करते रहते हैं तथा विश्लेषण के माध्यम से उसका यथार्थ स्वरूप जानने की चेष्टा करते हैं । यह बहुत ही जटिल प्रक्रिया है और अधिकांश समय इसमें कोई सफलता नहीं मिलती । किन्तु 40 की उम्र तक आते आते इनमें से अधिकतर गुत्थियाँ सुलझने लगती हैं और समस्त समीकरण समझ में आने लगते हैं । मानवीय संबंधों का खोखलापन, अनावश्यक जिम्मेदारियों तथा कार्यों का बोझ सभी समझ में आने लगता है । फिर भारतीय रेलवे के सुझाव “कम सामान, अधिक आराम” को मानते हुए इन सभी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर अपने जीवन के मुख्य ध्येय को पहचानकर उसका अनुधावन करने की चेष्टा होती है । दूसरे शब्दों में, अभी तक जिस ऊर्जा का कई क्षेत्रों में अपव्यय हो रहा था, उसका संचय करके उसे किसी एक विशेष क्षेत्र में ही लगाया जाता है । इसका अर्थ यह नहीं है कि अपनी सभी रुचियों को तिलांजलि देकर किसी एक कार्य में ही मनोनिवेश किया जाए, जो शायद वैसे भी संभव नहीं है । इसका वास्तविक पर्याय यह है कि अनावश्यक कार्य, व्यक्ति, संबंध आदि से छुटकारा पा लिया जाए । अधिकांश समय आपने भी देखा होगा कि हमारे कई संबंध केवल नाम-मात्र के हैं, उनमें सम्मान, प्रेम और विश्वास का पूर्णतः अभाव देखा जाता है । हम जिएँ या मरें, इससे दूसरे व्यक्ति को कोई अंतर नहीं पडता । तो क्या ऐसे मरे हुए संबंधों के शवों को ढोने का कोई अर्थ है ?
युवावस्था के आगमन के साथ ही हम जीवन के उल्लास और सौंदर्य को भलीभांति देखने और उपभोग करने के लिए आप्राण चेष्टा करते रहते हैं । इसके अतिरिक्त हमारी शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को देखते हुए हम पर दूसरों द्वारा भी कई अन्य कार्य और जिम्मेदारियाँ थोप दी जाती हैं । ध्यान देने योग्य बात यह है कि न तो इन सभी कार्यों से किसी का भला होता है और न किसी को आनन्द ही प्राप्त होता है । और फिर आप तो जानते ही हैं कि लोग केवल अपने मनोरंजन के लिए भी दूसरों का उपयोग करने से नहीं झिझकते । अब यदि भावनाओं में बहकर सभी की माँगों को पूरा करने लगें तो अपने लिए समय ही नहीं बचेगा और स्पष्टतः व्यक्ति अपने निज कर्तव्य से विचलित हो जाएगा ।
देखा जाए तो जीवन के प्रारंभिक 20 वर्ष संसार और विश्व को देखने-समझने में ही बीत जाते हैं, फिर अगले 20 साल जीवन से अनुभव प्राप्त करने में निवेशित होते हैं । इस तरह से व्यक्ति 40 वर्ष की आयु से ही अपने जीवन का वास्तविक प्रारंभ करता है और उस समय तक संगृहीत ज्ञान और अनुभव के आधार पर ही वह अपना शेष जीवन व्यतीत करता है तथा सभ्यता के विकास और प्रगति में अपना योगदान देता है । कुल मिलाकर 40वाँ वर्ष समय होता है अपने लंबे अनुभव और विश्लेषण को भली प्रकार से उपयोग करके जीवन को समेटने का, तथा मन, प्राण और शरीर से अपने ध्येय और कर्तव्य में एकाग्रचित्त होकर लग जाने का ।
Wishing you all the best in your journey of life
Thank you so much Sir!
मंगल कामनायें ।।
क्षितिज और भी हैं और संगठित, यथोचित, दिशातर उडान तो अब शुरु हुई है।
धन्यवाद ऋतेश । तुमने लेख के सार को बहुत ही सुंदर ढंग से व्यक्त किया है ।
बहुत खुबसूरत जीवन यात्रा की अभिव्यक्ति । आपकी यह बात मुझे बेहद पसंद आई – “प्रकृति के नियमों को स्वीकार कर लेने में ही बुद्धिमत्ता है ।”
आपकी आगे की जीवन यात्रा शुभ अौर मंगलमय हो।
बहुत-बहुत धन्यवाद रेखा जी 🙂
A wonderful introspection of life so far and life in general.Kudos Amit!
“कहते हैं 40 वर्ष की आयु कन्या राशि वालों के जीवन में निर्णायक मोड लाती है । व्यक्तिगत एवं कार्यगत क्षेत्र में कई सकारात्मक बदलाव आते हैं ”
Wishing you all the best for the future innings!
Thank you so much Sir! Your blessings mean a lot to me 🙂
As we enter another phase of life, we often ponder on what we learnt, what we lost, where we erred….40 is decisive for many I think….perhaps because there are many things/goals, social, familial etc that we have reached….It is a time to contemplate….about the dead relationships that we carry as burdens, as you rightly mentioned…..It is a time to ponder over the next path we want to walk on….A beautiful post…..
Thank you Sunaina! You have summarized it very nicely 🙂
nice post…….. Jeeven mahtavpurn hai.. ye samjhna jaaruri hai.. Good post Amit Ji
धन्यवाद अमन । मुझे प्रसन्नता है कि आपको यह लेख अच्छा लगा ।