पेड-पौधे, जन्तु-जानवर आदि के बारे में गहरी जानकारी रखने में मेरी कभी दिलचस्पी नहीं रही, इसलिए मुझे अधिकांश पेडों और जन्तुओं का नाम नहीं पता । यह स्थिति और अधिक कठिन तब हो जाती है जब किसी दूसरी भाषा में कोई लेख पढा जा रहा हो । अब जब अपनी ही भाषा में पौधों का नाम नहीं पता, तो भला दूसरी भाषा में क्या पता चलेगा !
अस्तु, मराठी पत्रिका चित्रलेखा में एक महिला ने किसी पौधे के औषधीय गुणों के विषय में एक छोटा-सा लेख भेजा था । मुझे समझ नहीं आया कि वह किस पौधे की बात कर रही हैं । लेखिका के विचार से पौधे के ये गुण पारंपरिक ज्ञान हैं किंतु अधिकांश लोग इससे परिचित नहीं हैं । उन्होंने स्वेच्छा से इस पौधे के उपयोगों का प्रचार-प्रसार करने का आरम्भ किया — लेख लिखे, लोगों से मिलीं, सभी को बताया । इससे भी जब उन्हें संतुष्टि नहीं हुई तो उन्होंने बहुत से छोटे-छोटे पौधे खरीदे और सुबह-सुबह नजदीक के पार्क में पहुँच गईं । साथ में झोला-भरकर पर्चे थे जिन्हें उन्होंने स्वयं छपवाया था और जिसमें उस पौधे के गुणों का विस्तार से वर्णन किया गया था । उद्देश्य स्पष्ट था — वे प्रत्येक भ्रमणकारी को बुला-बलाकर उस पौधे के बारे में बताएँगी और वह पर्चा देंगी । साथ ही एक पौधा उपहार-स्वरूप देंगी । जी हाँ, अनासक्तिपूर्वक, निःशुल्क ।
परिणाम वही हुआ जिसकी उन्होंने आशा की थी । जिस भी व्यक्ति से उन्होंने बात की उसी ने परम रुचि दिखाई और पौधा ले लिया । धीरे-धीरे लेखिका के सभी पौधे समाप्त हो गए । एक परम संतोष और उपलब्धि की मुस्कराहट लेखिका के चेहरे पर छा गई जैसा हमें अनुभव होता है जब भी हम अपनी पहल पर सेवाभाव और भ्रातृभाव से कोई कार्य करते हैं । अपनी परियोजना की उपसंहार पर प्रसन्नचित्त होकर वे उठीं और घर की ओर चल दीं ।
कुछ ही दूरी पर चलने पर उन्होंने जो दृश्य देखा उससे उनका हृदय आहत हो गया । उनके दिए गए लगभग सभी पौधे सडक पर इधर-उधर बिखरे पडे थे । दृश्य को समझने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई — लोगों ने उनका दिल रखने के लिए या शायद मुफ़्त में मिल रहे थे इसलिए क्षणिक आवेश में बहकर पौधे तो ले लिए थे, लेकिन उनके लिए उनका कोई उपयोग न होने के कारण उन्हें भारस्वरूप जानकर उन्हें फेंक दिया था ।
घर जाकर उन्होंने इस विषय पर बारीकी से सोचा । इतना सबकुछ होने के बाद भी उनके कृतसंकल्प पर कोई प्रभाव नहीं पडा ।
अगले दिन वह फिर गईं, पर्चों और पौधों के साथ । उस दिन भी उन्होंने वे दोनों ही बाँटे, और पिछले दिन की ही तरह विस्तार से गुण और परहेज भी बताए । लेकिन इस बार उन्होंने पौधे उपहारस्वरूप नहीं दिए, बल्कि 5 रूपए अथवा ऐसी ही किसी कीमत पर बेचे । जिन्हें लेना था, उन्होंने लिया ही । फिर भी विक्रय पर कुछ खास अन्तर नहीं पडा । दिन के अंत में बचे-खुचे पर्चे और पौधे झोले में भरकर वह घर जाने के लिए उठीं । अत्यधिक संशय और उद्वेग के साथ जब वह पार्क से बाहर निकलीं तो यह देखकर आश्चर्यचकित हो गईं कि आज एक भी पौधा सडक पर नहीं पडा था । उन्हें सब कुछ समझ में आ गया था और सफलता का सूत्र मिल गया था ।
उपलब्धियों का मान तभी होता है जब उन्हें प्राप्त करने के लिए संघर्ष किया गया हो । मैं मात्र एक टिप्पणी भर कर रहा हूँ, तथा किसी प्रकार का सुझाव अथवा उपदेश नहीं दे रहा हूँ कि आपको अमुुक प्रकार का व्यवहार करना चाहिए । मेरी टिप्पणी मात्र इतनी भर है कि यदि व्यक्ति को कोई वस्तु सरलता से प्राप्त हो जाए तो वह उसका सम्मान नहीं करता । आप अपने चारों तरफ देखिए, और यदि चारित्रिक बल हो तो अपने स्वयं के जीवन पर भी दृष्टिपात कीजिए ।
शायद वायु, जल तथा पर्यावरण के अन्य घटकों से जुडी समस्याओं का सूत्रपात यहीं से होता है । जब से हम इस धरती पर आए हैं, तभी से हम इन्हें देखते और उपभोग करते आ रहे हैं । हमने इन्हें प्राप्त नहीं किया, यह पहले से ही थीं । और शायद इसीलिए मनुष्य इनका असम्मान करता आ रहा है । दोष दिया जाता है औद्योगिकीकरण को, जनसंख्या वृद्धि को, लेकिन स्वयं को प्राणीजगत का सर्वोत्तम जीव बताने वाले मनुष्य के लिए प्रकृति से सामञ्जस्य रखकर प्रगति करना क्या नितांत असंभव था ? एक तरफ चंद्रमा, मंगल और प्लूटो तक अभियान भेजने वाले मनुष्य के लिए क्या सचमुच कोई मध्यम मार्ग नहीं था ?
जब तक किसी उपलब्धि के लिए मूल्य न दिया गया हो, तब तक उसका महत्त्व नहीं समझा जाता । मैं जब भी पौराणिक कहानियाँ पढता हूँ, जैसे ध्रुव, वज्राङ्ग, भगीरथ, तो मेरे मन में यही विचार आता है कि शायद आध्यात्मिक साधना और तपस्याएँ भी इसी कारण से इतनी कठिन होती हैं । यदि इतना कष्ट न उठाना पडे तो शायद मनुष्य सिद्धियों और फलों का महत्त्व समझेगा ही नही ।
सार्वजनिक सम्पत्ति के साथ तो ऐसा ही है, तभी तो जल-शुल्क लगाने जैसे सुझाव यदा-कदा दिए जाते हैं । मनुष्य समाज के भीतर भी यही प्रचलन देखा जाता है । अपने परिवार में भी आप इसी प्रकार का व्यवहार प्रायः देखते रहते हैं । जो आपको निःस्वार्थ प्रेम करता है, हमेशा आपके साथ रहता है, आप प्रायः उसी के साथ दुर्व्यवहार करते हैं । प्रेम आप उसी से करते हैं जिसके पीछे आपकों दौडना पडे, जिसके साथ बात करने के लिए भी आपको संघर्ष करना पडे । यह बात और है कि जब आप वहाँ दौड-भाग कर थक जाते हैं तो वापस निःस्वार्थ प्रेम की खोज में ही वापस आ जाते हैं । लेकिन बात तो वही रही । संतोष और सम्मान-रक्षा के लिए मानों एक न्यूनतम परिमाण में दौडना आवश्यक हो !
बिना यह सोचे कि किसी वस्तु अथवा व्यक्ति को प्राप्त करने के लिए कितना मूल्य अथवा समय निवेशित किया गया, यदि मनुष्य उसका सम्मान कर सके, तब तो उसके जीवन की और समाज की भी जाने कितनी ही समस्याएँ मिट जाएँ ।
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Very true..something which is free holds less importance in our life than expensive one
Thanks Sapna! Actually, it has equal importance as expensive things, but is given less importance by us.
ये बात सही है कि अनायास प्राप्त वस्तु का सम्मान नही किया जाता, लेकिन ये इस बात पर भी निर्भर करता है कि उस वस्तु की सामने वाले व्यक्ति के जीवन मे प्राथमिकता है कि नही,जहाँ तक पौधों की बात है वो उस व्यक्ति के लिए बिल्कुल उपयोगी नही होंगे जो भौतिकवादी हो और अपने घर को कृत्रिम पौधों और समान से सजाते हों ,लेकिन मुझे नहीं लगता कि जीवन मे हर चीज का मूल्य लगाया जा सकता है।
यहाँ आप ‘मूल्य’ शब्द का अर्थ सीमित रूप से भौतिक अर्थ में ही लगा रही हैं । वस्तुतः यह शब्द श्रम और संघर्ष के अर्थ में प्रयोग किया गया है जो रचना की विषय-वस्तु और अर्थ से स्पष्ट है ही । तथापि प्रतिपादन के आरंभ में ही उल्लेख किया है — “. . . उपलब्धियों का मान तभी होता है जब उन्हें प्राप्त करने के लिए संघर्ष किया गया हो . . .”
आपके लेख के अनुसार उन लोगों ने पौधों को सिर्फ सामने वाले का मन रखने के लिये लिया और वापस जाते समय इधर उधर फेंक दिया ये यही बताता है कि मुफ्त मे मिले पौधों का उनके जीवन मे कोई महत्व नही है क्योंकि जिस व्यक्ति को पौधों से प्यार होगा वो उन्हें ऐसे ही नही फेकेगा जहाँ तक उपलब्धि और संघर्ष से आप का तात्पर्य है उससे मै सहमत हूँ।लेकिन वर्तमान समय मे सामाजिक मूल्य इतने गिर चुके हैं संघर्ष के बाद उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिये भी लोगों को मूल्य चुकाना पड़ता है हर क्षेत्र मे दी जाने वाली रिश्वत इसका ज्वलंत उदाहरण है
उपयोग न होने की अवस्था में वह व्यक्ति अनायास ही वह पौधे न ले लेते यदि किसी भी प्रकार का मूल्य देकर क्रय करना होता । यदि ले भी लेते, तो ऐसे फेंकते नहीं । दूसरे दिन बचे हुए पौधे ऐसे ही व्यक्तियों की समष्टि को निरूपित करते हैं जिनके लिए पौधों की उपयोगिता नहीं थी । दूसरे दिन भी अधिकांश पौधे लिए गए लेकिन फेंके नहीं गए । सभी कुछ स्पष्ट तो है ।
दूसरी टिप्पणी की प्रस्तुत लेख के संदर्भ में प्रासंगिकता समझ नहीं आई ।
मैं भी आपकी इस बात से सहमत हूँ. यह मानव होता स्वभाव है. मोल चुकाने के बाद मोल बढ़ जाता है.
कितनी सुंदरता से कहा है आपने — “मोल चुकाने के बाद मोल बढ़ जाता है” 🙂
आपके लेख से मैं पूरी तरह साहमत हूँ, इसलिये मैंने ऐसा लिखा। आपको मेरी बात पसंद आई, मेरे लिये यह खुशी की बात है। धन्यवाद ।
Thanks Amit for the simple but appealing post. It is true that we appreciate little if something is achieved easily.
Thank you Santosh bhai 🙂 I feel very happy that you liked it.