बिना थके थूकते रहे

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Photo source: The Times of India

— यदि आप हमसे पूछें तो रसखान जैसा कवि हिन्दी साहित्य में दूसरा कोई नहीं है । – कहकर उसने अपनी गर्दन को कबूतर के जैसे एक ओर घुमाया और सडक पर थूका, फिर अपने विचारों का सारांश बताया –

— लोगों को तो सूर, तुलसी, कबीर और आजकल निराला, दिनकर से आगे कुछ दिखता ही नहीं है । वरना रसखान को तो समझो बस रस की खान । – कहकर उसने फिर से थूका ।

मैं समझ नहीं पाया कि वह रसखान से प्रभावित है या घृणा करता है । एक बार के लिए मैंने सडक के उस स्थान पर दृष्टि निक्षेपित की जो उनके मुख से उत्सर्जित उल्का पातों का लक्ष्यबिन्दु था । अधिक वर्णन नहीं करूँगा, बस यह समझ लीजिए कि मुँह पर रुमाल रखकर मैं वहाँ से भागा और घर पहुँचकर अच्छा-खासा समय वॉशबेसिन के सामने व्यतीत किया । मेरे अकस्मात् पलायन से विस्मित उनकी पुकार पीछे से सुनाई देती रही । यह हैं हमारे एक कर्मठ सेनानी मित्र जो इस धरा को अपने मुख-निःसृत अमृत-बिन्दुओं से अगणित वर्षों से सिंचित करते रहे हैं । चाहे यह अकेले हों अथवा समाज-संगोष्ठी में, यह अपने कर्तव्य कर्म से कभी भी च्युत नहीं होते हैं ।

थूक हमारी संपदा है, थूकना हमारी परंपरा है । रुपए गिनते समय, कॉपी-किताब के पन्ने उलटते समय, गाडी का शीशा चमकाने के लिए इससे बेहतर, सस्ता, तथा सर्वत्र और सदा उपलब्ध होने वाला द्रव भला और कहाँ मिलेगा ? उदारीकरण की नीति के कारण इन सामान्य कार्यों के लिए भी कई विदेशी यन्त्र तथा रसायन बाजार में आ गए हैं । इससे हमारी सांस्कृतिक विरासत की उपेक्षा और हानि ही हुई है ।

थूकने को आप किसी भी स्थिति में एक बुरी आदत न समझें । यह एक कला है, एक विज्ञान है, जैसा आप अवश्यमेव जानते होंगे यदि आप कभी निम्नलिखित प्रकार के अनुभव से गुज़रे हैं —

— क्या है, आप मुझ पर थूक क्यों रहे हैं ? देख नहीं सकते क्या — आदमी आ रहा है ?

— कहाँ आ रहा है ? कैसी बात करते हैं साहब ? आप उधर हैं और मैंने इधर थूका ।

अद्भुत ! भौतिक शास्त्र का, विशेषतः प्रक्षेप गति का — कितने वेग से किस कोण पर प्रक्षेपित करने पर थूक कितनी दूरी तक पहुँच सकता है — इतना विशिष्ट एवं प्रायोगिक ज्ञान तो स्वयं न्यूटन को भी नहीं रहा होगा । और शायद आइन्स्टाइन को भी नहीं । तभी तो यह महानुभाव चलते हुए स्कूटर, साईकिल, मोटर-साइकिल से थूक देते हैं और आश्वस्त रहते हैं कि वे अमृत-बिन्दु पीछे आते हुए व्यक्ति पर नहीं पडेंगे । सापेक्षता के सिद्धान्त का इससे उपयुक्त उदाहरण और कहाँ मिलेगा ?

बचपन में हमारे पडोस में एक लडका रहता था जिसे इस कला में ऐसी कई सिद्धियाँ प्राप्त थीं जिन्हें जब तक प्रत्यक्ष न देखा जाए, विश्वास ही नहीं होता । एक ऐसी ही सिद्धि थी कि वह एक बार नीचे की ओर थूककर उस द्रव्य को मध्य मार्ग से ही वापस ऊपर खींच सकने की क्षमता रखता था । एक बार उसने इसी कौशल का प्रदर्शन खेल के मैदान में लेटे हुए अपने एक मित्र के ऊपर किया किन्तु पहली और अंतिम बार असफल रहा । अंतिम बार इसलिए क्योंकि वह फिर कभी ऐसी चेष्टा करने का साहस नहीं जुटा पाया ।

ऐसा नहीं है कि यह लोग आदत के अधीन होकर यत्र-तत्र-सर्वत्र थूकते रहते हैं अथवा स्वयं पर तनिक भी नियंत्रण नहीं रख सकते । वस्तुतः यदि आप इनसे मिलें, बात करें अथवा मात्र साक्षात्कार ही करें, तो भी आप पाएँगे कि यह सज्जन परम संयम के धनी होते हैं । एक बार मैं और एक मित्र चाय की दुकान से लौट ही रहे थे कि हमने देखा कि एक महाशय बगल की दुकान के बाहर बेञ्च पर एक हाथ में चाय और दूसरे में सिगरेट लिए.हुए बैठे हैं । वे उक्त पदार्थों के सेवन से पूर्व थूकने की प्रकिया में लीन थे — छाती, गले और मुँह का सारा बलगम, लार तथा अन्य सभी पदार्थों को मिलाकर थूक का निर्माण हो चुका था और प्रक्षेपित होने के स्तर पर था । हम दोनों उन्हें देखकर सम्मान पूर्वक, अथवा सत्य कहें तो भय पूर्वक, ठिठककर वहीं रुक गए। ऐसा अवश्य होता है — प्रथा है — आप किसी के घर जाएँ और देखें कि वह पूजा-अर्चना अथवा भोजन में रत है, तो आप वहाँ विघ्न उपस्थित नहीं करते हैं, बस चुपचाप लौट आते हैं या फिर प्रतीक्षा कर लेते हैं । सो हमने भी ऐसा ही किया और रुक गए । महाशय ने हमें देख लिया और हाथ से इशारा किया जिसका अर्थ हमने यह निकाला कि वे कुछ देर के लिए विरति दे रहे हैं जिस काल में हम सरलतापूर्वक सामने से निकल जाएँ । हमें यह अनुचित लगा, सो हमने भी हाथ से इशारा करके इंगित कर दिया कि हमें विलम्ब से कोई हानि नहीं है और वे अपना कर्मकाण्ड पूरा कर लें । यह आवश्यक नहीं था क्योंकि मुँह भरा होने के ही कारण महाशय इशारे से वार्तालाप कर रहे थे जबकि हम पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं था । अस्तु, महानुभाव के जोर देने पर हम निकल तो आए, परन्तु स्वीकार करता हूँ कि ठीक उनके सामने आते ही एक बार के लिए तो निःश्वास रुक ही गया था — कहीं . . .

लेकिन इतने गुणी होते हुए भी इन प्रतिभावान महानुभावों की कार्यक्षमता को भरपूर सम्मान न कभी मिला है और न आज ही मिल रहा है । आज के स्वतंत्र भारत में जहाँ व्यक्ति राजनैतिक के साथ ही अभिव्यक्ति आदि अन्य प्रकार की स्वतंत्रता का दावा करता है, भाग्य का कैसा परिहास है कि हमारे इन बन्धुओं पर प्रत्येक सार्वजनिक स्थान पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है — “यहाँ थूकना मना है” । इतना ही क्या कम था कि माननीय प्रधानमंत्री ने स्वच्छता अभियान छेड दिया । रास्ते साफ़ किए जाने लगे, कूडा हटाया जाने लगा, सार्वजनिक स्थान चमकाए जाने लगे — कुल मिलाकर भारत अब भारत जैसा नहीं रहेगा । प्रतिदिन की भाँति मैं अपने एक मित्र के साथ सायंकालीन भ्रमण कर रहा था ; मित्र मुँह में गुटका दबाए हुए थे, और नियत कालांतर में थूकते जाते थे । मैंने झुँझलाकर उन्हें धिक्कारा — “क्या ? भूल गए ? राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान !” मित्र तिलमिला गए — “स्वच्छता मतलब कि अब हम थूकें भी नहीं क्या ?” कितनी पीडा, कितनी वेदना छिपी थी उस छोटे-से वाक्य में ! मानों किसी सच्चे और ईमानदार नागरिक से उसका मौलिक अधिकार छीना जा रहा हो । मैं उन्हें समझाना तो चाहता था — “एक श्वास में तो आप इस धरती को अपनी माता, मातृभूमि, कर्मभूमि कहते हैं और दूसरे ही क्षण इसे इस प्रकार की गर्हित अंजलि देते हैं । जननी-जन्मभूमि कहकर धरती को माता के समतुल्य कहा गया है । तो क्या आप अपनी माता पर भी . . . ?” लेकिन बात बढ जाने के भय से मैं चुप रह गया ।

लेकिन इन महाबलियों ने कभी हार नहीं मानी है और संस्कृति रक्षा के लिए अपना संघर्ष कायम रखा है । इसका प्रमाण है “यहाँ थूकना मना है” लिखे संदेश पर दागे हुए लाल-भूरे धब्बे । वैसे मैं पूर्ण विश्वास के साथ दावा तो नहीं कर सकता कि वे दाग उक्त संदेश लिखे जाने के बाद अस्तित्व में आए थे अथवा पहले से ही थे । जो भी हो, यह संघर्ष अभी लंबा चलेगा क्योंकि दूसरी तरफ से शायद सरकार ने भी इनके दमन के लिए परोक्ष तरीके अपना लिए हैं । हमारे शहर में आजकल इन सज्जनों के प्रिय स्थानों पर देवी-देवताओं की तस्वीरें चिपका दी जाती हैं — आओ, अब थूक कर दिखाओ !

विभिन्न भाषा और रीति रिवाजों वाले इस देश में शायद ही अन्य कोई गतिविधि होगी जो सभी लोगों में व्यवहार की समानता दर्शाती है । यह रिवाज इतना व्यापक है कि सडक पर सुरक्षित और सूखे चलने के लिए सामान्य व्यक्ति के पास एकमात्र उपाय रह गया है कि वह रेनकोट पहन कर निकले । आप कहेंगे, भला यह क्या बात हुई, उन्हें थूकने से रोकने के स्थान पर आप हमें रेनकोट पहनने जैसे बचाव के उपाय बता रहे हैं । किन्तु मित्र, क्या यही प्रत्याशित नहीं है ? आप ही बताइए, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कोई भी किसी को भी कुछ भी कह देता है, और उसे सहन करने का और उससे विचलित न होने का दायित्व तो श्रोता का ही समझा जाता है । ठीक उसी तर्क को आगे बढाते हुए थूक से बचाव का दायित्व स्वयं आप पर अर्थात् सामान्य नागरिक पर है ।

एक बार शाम के समय हम शहर से घूम कर लौट रहे थे । अचानक हमारी गाडी — विक्रम ऑटो —  एक झटके से रुकी । ऐसा प्रायः होता है जब कभी ऑटोचालक को किसी संभाव्य सवारी के दर्शन होते हैं । किन्तु जब ऑटो में चलने वाला संगीत भी बन्द कर दिया गया तो हम समझ गए कि यह कोई सामान्य गतिविधि नहीं है । अचानक दो युवा व्यक्ति — जो एक मोटर साइकिल पर सवार अभी-अभी हमारे ऑटो के बगल से ही निकले थे — गाडी के दरवाजे के पास आकर ललकारने लगे —

— किसने थूका ? अभी-अभी किसने थूका ?

उनकी भावभंगिमा से यह स्पष्ट था कि चाहे जो भी हो, वे अभियुक्त को उसके सफल लक्ष्यभेद के लिए अभिवादन तो नहीं ही करेंगे । फलस्वरूप ऑटो में सन्नाटा छाया रहा । या तो अभियुक्त हमारे ऑटो में था ही नहीं, या फिर भारतीयों ने आश्चर्यजनक संगठन और एकता की उपलब्धि कर ली थी जो अन्यथा मात्र पाकिस्तान के विरूद्ध खेल में दर्शकदीर्घा में ही दिखाई देती है । दोनों ही संभावनाएँ शुभ संकेत थे, ऐसा मानकर मन हर्षित हो गया । किन्तु एक बात मन को कचोटती रही । यदि अभियुक्त सचमुच हमारे बीच था, तो इन दो युवाओं के इस प्रकार के क्रोध प्रदर्शन के कारण ही वह अपने कृतित्व का श्रेय नहीं ले पाया । साथ ही मौन रहकर उसने एक प्रकार से सत्य के मार्ग को भी छोड दिया । कैसी विडम्बना है कि जहाँ एक तरफ हमारे देश का ध्येय वाक्य सत्य की विजय की घोषणा करता है, दूसरी तरफ हमारा समाज एक ऐसी परिस्थिति का निर्माण करता है जहाँ व्यक्ति के पास सत्य से विचलित होने के अतिरिक्त कोई मार्ग ही नहीं रह जाता । यही तो अन्य अपराधों की स्थिति में भी है — अभियुक्त स्वयं अपराध स्वीकार कर ले ऐसा भी राम-राज्य नहीं है ।

मेरे विचार से इन महाशयों को यथोचित सम्मान नहीं दिया जा रहा है । इन पर इतनी प्रकार और परिमाण की पाबंदियाँ लगाने के स्थान पर इनकी दक्षता का उपयोग देश की उन्नति तथा कुशलक्षेम में किया जा सकता है । अन्यथा यह मानव संसाधन का सरासर दुरुपयोग है जो भारत जैसे विकासशील देश के लिए सर्वथा उचित नहीं है ।

भारतीय डाक सेवा इनका गोंद के स्रोत के रूप में प्रयोग कर सकती है । आम तौर पर देखा जाता है कि डाकघरों में उचित परिमाण में लिफ़ाफ़े अथवा टिकट चिपकाने के लिए द्रव उपलब्ध नहीं है । साथ ही यह भी देखा जाता है कि गोंद का नियमित और सतत प्रयोग न होने के कारण शीशी सूख जाती है जिससे पदार्थ का अनावश्यक अपचय होता है । एक व्यक्ति को रोजगार दिया जा सकता है जो आग्रह करने पर लिफाफे के सिरे पर अथवा टिकट पर आवश्यकतानुसार थूक कर उक्त वस्तु चिपकाने में सहयोग करेगा ।

श्री आर. के. लक्ष्मण का एक कार्टून मुझे याद है । एक सामान्य व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ कार से शहर गया था । यद्यपि वह वर्षाकाल नहीं था, तथापि उन्हें वहाँ सडकों पर कई छोटे-छोटे तालाब जैसे जलाशय दिखे । पत्नी ने समझाया — “नहीं, बिन-मौसम-बरसात नहीं, असल में यह हमारे नगरवासियों के थूकने के कारण बने हैं” । यहीं से मुझे विचार आया कि सार्वजनिक स्थानों पर “यहाँ थूकना मना है” लिखने के स्थान पर कुछ विशेष स्थान आरक्षित कर दिए जाएँ — “कृपया यहीं थूकें” । इससे शहरों में कृत्रिम जलाशयों का निर्माण हो सकेगा तथा अहमदाबाद में वस्त्रापुर लेक और कानपुर में मोती झील जैसे पर्यटक स्थलों पर अतुल धन राशि व्यय नहीं करनी पडेगी ।

मेरा एक अन्य सुझाव है कि इन महानुभावों की सेवाओं से भारतीय थल सेना को भरपूर लाभ उठाना चाहिए । इन जैसे महाप्रतिभावान व्यक्तियों से गठित एक “थूक रेजिमेण्ट” का निर्माण किया जा सकता है । आपको यह तो ज्ञात ही होगा कि कई देशों में थूकने को अत्यधिक कुत्सित समझा जाता है — कई अन्य देशों में तो दण्ड का भी प्रावधान है । ऐसे देशों के साथ युद्ध की स्थिति में यदि इस “थूक रेजिमेण्ट” का अह्वान किया जाए तो मुझे विश्वास है कि शत्रु बिना युद्ध के ही पलायन का मार्ग लेगा । आगे, पीछे, दाएँ, बाएँ, नीचे सभी दिशाओं में — ऊपर को छोडकर — आघात कर सकने वाले कुछ ही अस्त्र हैं । दुर्गम पर्वत, समुद्र, मैदान, रेगिस्तान जहाँ भी मानव जा सकता है, वहाँ अवश्य ही यह टुकडी भी जा सकेगी ।

विभिन्न कारकों से निर्मित थूकों के भौतिक एवं रासायनिक गुण पृथक-पृथक होते हैं । पान के अलग, गुटका-तम्बाकू के अलग, साधारण बलगम के अलग । क्या ऐसी अन्य कोई शस्त्र टुकडी भारतीय सेना में है जो विभिन्न संरचना के अस्त्र दाग सके ? यह परम उपलब्धि मात्र इसी भूखण्ड में संभव है, अतः भारत को किसी अन्य देश से आयात भी नहीं करना पडेगा, जिससे सुरक्षा-व्यय घटेगा और मुद्रा का अन्यत्र निवेश किया जा सकेगा । हाँ, वैसे इस अस्त्र का निर्यात भी संभव नहीं है अन्यथा भारत को विदेशी मुद्रा कमाने का एक विशिष्ट पथ मिल सकता था । तथापि चूँकि अन्य देशों में यह प्रथा प्रचलित नहीं है, सो भारतीयों की समतुल्य दक्षता प्राप्त करने में उन्हें कई दशक लग जाएँगे ।

बिना मानव के प्राण लिए किसी युद्ध को जीतने का अन्य कोई उपाय मेरी दृष्टि में तो नहीं है । इससे भारत अपनी सुरक्षा भी सुनिश्चित कर सकेगा और साथ ही अपनी अहिंसा की नीति को भी त्याग नहीं करेगा । इन्हें रासायनिक अस्त्रों की संज्ञा दी जा सकती है या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता । किन्तु हाँ, भारत के पडोसी देशों के विरूद्ध जहाँ इस प्रथा का प्रचलन है, यह टुकडी शायद प्रभावी न हो । ऐसी किसी परिस्थिति में हमें परंपरागत युद्ध शैली का ही आलम्बन लेना होगा ।

अपनी सांस्कृतिक धरोहर के प्रति उदासीनता के कारण भारतवर्ष को सदैव उपेक्षा एवं ह्रास सहना पडा है । अपनी संस्कृति एवं ज्ञान का समादर न करने के कारण भारत न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उपेक्षित हुआ है अपितु बाहरी शक्तियों के हाथों अपनी अमूल्य निधि को गँवाता रहा है । देर से ही सही, आज उसकी आँखें खुली हैं, और वह भी तब जब दूसरे देशों ने उसके कृत्यों पर अपना अधिकार जताया है । चाहे वह नीम हो, हल्दी हो या योग हो । असल में इसका प्राकृत कारण है अपनी विशिष्टता के बारे में हमारी अनभिज्ञता, अपनी उत्कृष्ट कृतियों को भी सामान्य उपलब्धि मानना । अभी हाल ही में एक समाचार आया था कि एक ऑनलाइन विक्रय कम्पनी ने गाय के गोबर से बने हुए उपले बेचना शुरू किया है जिससे शहरों में रहने वाले लोग अपनी ग्रामीण बुनियादों की स्मृतियों से जुडे रह सकेंगे । यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि यदि उचित दृष्टिकोण हो तो आर्थिक उन्नति के प्रचुर आयाम उपलब्ध हैं । तो क्यों न हम आज से ही प्रारंभ करें ? मैंने यहाँ एक प्रारूप-मात्र दिया है । शिक्षित एवं बुद्धिजीवी वर्ग अधिक विचार एवं सुझाव प्रदान कर सकते हैं । इस प्रकार एक-से-एक कडियाँ जुडती जाएँगी और नए-नए अनुप्रयोग सामने आते जाएँगे । किन्तु आवश्यकता है सर्वप्रथम अपने इन विशिष्ट प्रतिभावान देशवासियों को उचित सम्मान देकर पहला कदम उठाने की । इन्हीं सब विचारों से दृढचेता होकर मैंने अपना फोन उठाया और उन सज्जन का नम्बर लगाया –

— माफ़ कीजिएगा, मुझे इस तरह आना पडा । असल में तबीयत ज़रा खराब हो गई थी । तो आप क्या कह रहे थे उस समय रसखान के बारे में ?

उस तरफ से गला खँखारने की आवाज आते ही मैंने अपनी आँखें बन्द कर लीं और गहरी साँसें लेने लगा ।

|| इति ||

20 thoughts on “बिना थके थूकते रहे

    1. Amit Misra Post author

      Many thanks for your encouraging remarks. I was really wondering how the reference to the physical laws would be received. Your feedback always helps me in experimenting with content and style.

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  1. Rekha Sahay

    आपके हास्य में छुपे व्यंग का पुट लाजवाब है . और आपने शीर्षक भी चुटीलापन वाला दिया है . यह समस्या वास्तव में लाईलाज है .

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    1. Amit Misra Post author

      धन्यवाद रेखा । सुनने में तो खराब लगता है, लेकिन शायद सचमुच इसका इलाज संभव नहीं है । लोकतंत्र की दुहाई देकर कठोर नियम लगाने नहीं दिया जाएगा और व्यक्ति मात्र का विवेक रातोंरात सचेतन हो उठेगा इसके भी कोई संकेत नजर नहीं आते ।

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    1. Amit Misra Post author

      Thank you Rupali! I also hope that some day people may realize how annoying and disgusting this habit is. It only shows disrespect to one’s own city and fellow citizens.

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  2. anuragbakhshi

    You have no idea how happy it makes me to read satire in Hindi after years, if not decades. Dil ko ajab sa sukoon milta hai yeh dekh ke ki koi toh hai jo abhi bhi apni bhaasha mein vyangya kass raha hai. Mazza aa gaya saahab!

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    1. Amit Misra Post author

      धन्यवाद अनुराग भाई । मुझे बहुत प्रसन्नता हुई कि आपको यह लेख पसंद आया ।

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