रचनाकार — प्रदीप बहुगुणा ‘दर्पण’
ये क्या देखता हूँ
किसी बुरी शै का असर देखता हूं ।
जिधर देखता हूं जहर देखता हूं ।।
जिधर देखता हूं जहर देखता हूं ।।
रोशनी तो खो गई अंधेरों में जाकर ।
अंधेरा ही शामो सहर देखता हूं ।।
अंधेरा ही शामो सहर देखता हूं ।।
किसी को किसी की खबर ही नहीं है ।
जिसे देखता हूं बेखबर देखता हूं ।।
जिसे देखता हूं बेखबर देखता हूं ।।
ये मुर्दा-से जिस्म जिंदगी ढो रहे हैं ।
हर तरफ ही ऐसा मंजर देखता हूं ।।
हर तरफ ही ऐसा मंजर देखता हूं ।।
लापता है मंजिल मगर चल रहे हैं ।
एक ऐसा अनोखा सफर देखता हूँ ।।
एक ऐसा अनोखा सफर देखता हूँ ।।
चिताएं जली हैं खुद रही हैं कब्रें ।
मरघट में बदलते घर देखता हूं ।।
मरघट में बदलते घर देखता हूं ।।
परेशां हूं दर्पण ये क्या देखता हूं ।
मैं क्यों देखता हूं, किधर देखता हूँ ।।
मैं क्यों देखता हूं, किधर देखता हूँ ।।
प्रदीप बहुगुणा राजकीय इण्टर कॉलेज, सौ़डा सरौली, देहरादून (उत्तराखण्ड) में भौतिक विज्ञान के अध्यापक हैं । विज्ञान के अतिरिक्त इनकी साहित्य तथा पत्रकारिता में रुचि है । इनके लेख, कविताएं तथा गीत नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं ।
photo credit: compassrose_04 254/365: Contemplating at Sunset via photopin (license)
Nice composition
Very nicely composed !!
Thanks Deepika!
आप एक जीनियस और सहृदय व्यक्तित्व हैं।
मैॆ भी आपसे सहमत हूँ भाष्कर जी । प्रदीप भाई वाकई में बहुत मेधावी और सह्दय व्यक्ति हैं ।
My genius dear friend i m proud of you many many congratulations god bless you
Thanks Suresh for your wishes. I have conveyed your message to Pradeep.
Achhee rachna, vartman visangatiyon ka chitrn
धन्यवाद उमेश ।
Truly picture of present society
I completely agree with you. Pradeep has a direct and unambiguous way of addressing issues.