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बच्ची

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उनकी चार साल की लडकी है । सदैव व्यस्त रहती है वह छोटी-सी बच्ची । कथक सीखने जाती है, तैराकी सीखने जाती है, माँ से कविता और कहानी सुनती है, खेलती है । मैंने उसकी माँ से पूछा कि इतनी रत्ती-भर की लडकी के लिए ज्यादा नहीं है ? उन्होंने कहा, “बात सीखने की नहीं है, बल्कि देखने की है । अगर उसे अति लगता, तो बंद करवा देती । मैं तो चाहती हूँ कि वह दुनिया देखे, जाने कि क्या-क्या है इस दुनिया में देखने और सीखने लायक । एक बार जब स्कूल जाने लगेगी, तो फिर कहाँ समय मिलेगा देखने, सुनने, सीखने का ।” सच ही तो कह रही थीं वह । कहने को तो शिक्षा हमें मनुष्य बनाती है, किन्तु साथ ही हमें आसपास के वातावरण से, तथा संस्कृति के सूक्ष्म तत्वों के प्रति उदासीन बना देती है । मिलता है वह ज्ञान जिसके व्यावहारिक उपयोग में संदेह है, और न जिसमें विद्यार्थी ही आनन्द प्राप्त करते हैं । मुझे याद है एक बार मुझे पढते देखकर एक फौजी ने कहा था, “भाई, कुछ समय के लिए सफेद को किनारे रखकर हरे को भी देख लिया करो ।”

photo credit: R.Mitra aka @the.photoguy (instagram) bemused! via photopin (license)