रचनाकार — प्रदीप बहुगुणा ‘दर्पण’
ये क्या देखता हूँ
किसी बुरी शै का असर देखता हूं ।
जिधर देखता हूं जहर देखता हूं ।।
जिधर देखता हूं जहर देखता हूं ।।
रोशनी तो खो गई अंधेरों में जाकर ।
अंधेरा ही शामो सहर देखता हूं ।। Continue reading
अंधेरा ही शामो सहर देखता हूं ।। Continue reading