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मुझे अपनी मित्रमण्डली में चल रही एक विशेष विषय पर बातचीत याद आ रही है । आप तो जानते ही हैं, विवाहित मित्रों की एक ही तो समस्या होती है — अपने अविवाहित रह गए मित्रों का विवाह । और मेरी समस्या थी कि जब भी मैं किसी कन्या को पसंद आता, वह झट-से मुझे अपना भाई बना लेती — ‘तुम्हारी शक्ल मेरे भाई से मिलती है’ । फिर जैसे हिन्दू लोग मूर्ति को ईश्वर मानकर उसकी पूजा करते हैं, उसी प्रकार मुझे अपने भाई का प्रतीक मानकर राखी आदि बाँधने लगतीं । और हम न इधर के रहे न उधर के — असली भाई तो थे ही नहीं, और संबंधी भी बन नहीं पाए । जब असली भाई आ गया, तो हमें सुरेश वाडकर का गाना सुनने के लिए छोड दिया गया — साँझ ढले गगन तले हम कितने एकाकी . . . । Continue reading