हम सब भारतवासी भाई-बहन हैं !

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photo credit: Beegee49 Happy Children via photopin (license)

मुझे अपनी मित्रमण्डली में चल रही एक विशेष विषय पर बातचीत याद आ रही है । आप तो जानते ही हैं, विवाहित मित्रों की एक ही तो समस्या होती है — अपने अविवाहित रह गए मित्रों का विवाह । और मेरी समस्या थी कि जब भी मैं किसी कन्या को पसंद आता, वह झट-से मुझे अपना भाई बना लेती — ‘तुम्हारी शक्ल मेरे भाई से मिलती है’ । फिर जैसे हिन्दू लोग मूर्ति को ईश्वर मानकर उसकी पूजा करते हैं, उसी प्रकार मुझे अपने भाई का प्रतीक मानकर राखी आदि बाँधने लगतीं । और हम न इधर के रहे न उधर के — असली भाई तो थे ही नहीं, और संबंधी भी बन नहीं पाए । जब असली भाई आ गया, तो हमें सुरेश वाडकर का गाना सुनने के लिए छोड दिया गया — साँझ ढले गगन तले हम कितने एकाकी . . . ।

तो मेरी एक मित्र ने बताया — “हमारे स्कूल के विद्यार्थी अत्यधिक सचेतन और दूरदर्शी थे । प्रातःकालीन सभा में प्रतिज्ञा की पहली पंक्ति तो जोर से चिल्ला कर बोलते थे — ‘भारत हमारा देश है और हम सब भारतवासी आपस में . . .’ । फिर शांत हो जाते थे । फिर थोडी देर के बाद चिल्लाते थे — ‘हमें अपना देश अपने प्राणों से भी प्यारा है’ ।  कुछ छात्र कहते तो थे — ‘आपस में भाई-बहन हैं’, लेकिन धीमी आवाज में यह भी जोड देते थे – ‘एक को छोडकर’ । हाँ ‘नरो वा कुञ्जरो वा’ का आधुनिक स्वरूप । उनका मानना है कि देशप्रेम अपनी जगह है, सत्य अपनी जगह । देशप्रेम के आवेश में बहकर भाई-बहन बन गए फिर शादी कर ली — यह भला क्या बात हुई ? अब या तो मान लो कि शादी करके प्रतिज्ञा भंग कर ली, अथवा प्रतिज्ञा पर टिके रहो, और रहो आजीवन अविवाहित । जैसे मैं . . .

यह सब शुरू हुआ था शिकागो में जब स्वामी विवेकानन्द ने अपने भाषण का प्रारंभ किया था — ‘मेरे अमरीकावासी भाईयों और बहनों’ से । कहते हैं, इन 5 शब्दों पर सभागार में 5 मिनट तक तालियाँ बजती ही रहीं । इस घटना के लगभग 60 साल बाद एक और बहुचर्चित व्यक्ति आए श्री अमीन सयानी जिन्होंने ‘बहनों और भाईयों’ की लोकप्रियता को और अधिक ऊँचाइयों तक पहुँचाया । हमें तो संशय होने लगा कि बस अब सयानी जी ‘बहनों और भाईयों’ का कॉपीराइट लेने ही वाले हैं । लेकिन उन्होंने नहीं लिया । वैसे इससे कुछ फर्क भी नहीं पडा क्योंकि अब तक ‘बहनों और भाईयों’ अमीन सयानी का समानार्थी बन चुका है ।

फिर शायद सयानी जी की लोकप्रियता से लाभ उठाने के लिए ही नेतागण ने ‘बहनों और भाईयों’ का अपने भाषणों में प्रयोग करना आरंभ किया । आजकल तो मैं नेताओं के भाषण नहीं सुनता । टीवी कभी का कचरे के ढेर में फेंक चुका हूँ । यदा-कदा मोदी जी इंटरनेट विज्ञापन पर आ जाते हैं तो आवाज बंद कर देता हूँ । असल में उनसे ही नहीं, बल्कि सभी नेताओं से ही कुछ चिढ सी होने लगी है । बीच में मराठी सीखने के लिए आकाशवाणी पर समाचार सुना करता था । आज भी बहुत अच्छे समाचार वाचक हैं आकाशवाणी के । लेकिन नेताओं के भाषण इतने ज्यादा आने लगे कि सुनना ही छोड दिया । मुझे यह भी नहीं पता कि राहुल मोदी केजरीवाल आदि की आवाज कैसी है । आखिरी बार पूरा भाषण राव का सुना था । वाजपेयी के भाषण तो आपको पता ही है कैसे थे । फिर बीच में प्रधानमंत्रियों की ऐसी बहार आई कि गिनने के लिए उँगलियाँ कम पड गईं । लेकिन उस समय राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री को भी दबाकर एक आवाज सुनाई दी — एक ही आवाज — चारों तरफ । नहीं, शेषन नहीं, पी ए सांगमा । लेकिन उन्होंने ‘भाईयों और बहनों’ नहीं कहा, उन्होंने बस कहा ‘प्लीज’ । और बस यही एक शब्द कहा । और इस एक शब्द और अपनी मुसकान के साथ संसद सदन और समस्त देशवासियों का हृदय जीत लिया । तो सीधी-सी बात है कि संबंध बनाने के लिए संबंधी बनाना जरूरी नहीं है ।

और फिर आजकल तो लोग अपने भाई-बहनों को ही नहीं स्वीकारते तो दूसरों को क्या स्वीकारेंगे ।

महाराष्ट्र में अगर आप किसी को भैया कह दें तो आपको मारने दौडेगा । हमारे मैस में एक रसोइया था, उसे एक छात्र ने कहा – “भैया, जरा रोटी दे दो” । तो वह चिल्लाया कि – “हम यूपी का भैया नहीं हैं” । छात्र ने झल्लाकर कहा — “भाग @#$%&$, तू है ही नहीं भाई कहलाने लायक” ।

अब भला कैसे समझाएँ कि जैसे गुजरात में ‘भाई’, बंगाल में ‘दादा’ कहा जाता है, उसी तरह अपने से बडे को ‘भैया’ कहा जाता है । लेकिन कौन समझाए । शास्त्रों में तो लिखा है — मातृवत् परदारेषु । पराई स्त्री को माता के समान समझना चाहिए । लेकिन जरा समझ कर तो देखिए । एक बार माँ सब्जी खरीदने गई थीं तो बाजार में शोरगुल सुनाई दिया । मिसेज बत्रा आलू वाले पर जोर-जोर से चिल्ला रही थीं । और वह बेचारा सहमा-सहमा सा खडा था । माँ का भी खून खौल गया और ‘नारी एकता जिन्दाबाद’ का नारा लगाते हुए रणक्षेत्र में कूद पडीं । अचानक किसी ने उनका हाथ पकड कर किनारे खींचा, देखा तो सक्सेना जी थे ।

— क्या कर रहीं हैं मिसराइन जी ?

— कुछ बोला होगा मिसेज बत्रा को । यह सब हैं ही ऐसे ।

— जी नहीं, जरा सोच तो लिया कीजिए । दाम पूछा था आलू का मिसेज बत्रा ने । तो बेचारा बोला — ’10 रुपए है माताजी’ । उसी पर बिगड पडीं ।

माँ ने अविश्वास से दुकान की ओर देखा तो मिसेज बत्रा की आवाज अभी भी आ रही थी — “मैं तेरी माँ लगती हूँ ? खोतया, मेरे बाप की उमर का है, मुझे माँ बोलता है !”

बहनों के साथ तो मेरा निजी तजुर्बा है । उन दिनों मैं मलयालम सीख रहा था । सो एक सहकर्मी को ‘चेची’ कहकर पुकारा । उसने आँख तरेर कर कहा – “चेची का मतलब जानते हो ?” मैंने मिमियाते हुए कहा – “नहीं, मतलब हाँ, मतलब दीदी, शायद, पता नहीं ।” तो बोली – “जब पता न हुआ करे तो मत बोला करो ।” और चल दी । फिर बोलचाल बंद । कई सालों तक मैं सोचता रहा कि ‘चेची’ कोई गाली होती होगी । और उस हालत में किसी से पूछ भी नहीं सकते । फिर सालों बाद फिर मौका आया और मैंने एक छात्रा से पूछ ही लिया । उसने बताया ‘दीदी’ । मैंने पूरी घटना सुनाई तो वह बोली — “तुम हो डब्बा ! उस बेचारी ने कितने अरमान सजा रखे होंगे और तुमने पानी डाल दिया ।” यहाँ आईo आईo टीo में अच्छा है — ‘सर’, ‘मैडम’ । चाहे कोई भी हो । पहले तो समझ नहीं आता था, झल्लाहट भी होती थी । लेकिन एक दृष्टि से देखा जाए तो लोग सत्यनिष्ठ हैं । ऑप्शन्स ओपेन । क्या जाने कब कौन पसंद आ जाए ।

समकालीन भारत में तो केवल दो ही दीदियाँ हैं । एक तो ममतादीदी और दूसरी बहन मायावती । मायाजी की जीवनी का तो शीर्षक भी ‘बहनजी’ है । ममतादीदी (61 वर्ष) बहन मायावती (60) से मात्र एक वर्ष ही बडी हैं । शायद इसीलिए उन्हें ‘दीदी’ और इन्हें ‘बहन’ कहा जाता है । एक अन्य भी हैं – सुश्री जयललिता । लेकिन प्रजाजन उन्हें अम्मा कहकर संबोधित करते हैं । यदि कानपुर में बैठकर सुदूर तमिलनाडु की व्यवस्था पर टिप्पणी करने की धृष्टता को क्षमा कर सकें तो कहूँगा कि अम्माजी ने भी जनता को मातृवत् स्नेह देने में कोई कमी नहीं की है । यह बात और है कि उस स्नेह के साथ अपनी फोटो भी चिपका दी है, वरना जनता कहीं अनाज की बोरी का उद्गम भाई करूणानिधि से न समझ लें ।**

उल्लेखनीय बात यह है कि आज के समय कोई भी नेता ‘भाई’, ‘बाबू’, आदि नामों से संबोधित नहीं किया जाता । समाज में तो ऐसी दुविधा नहीं देखी जाती है । ‘बाबा’ शब्द संन्यासियों और समाज-सेवियों के लिए बहुतायत में प्रयोग किया जाता है । फिर नेतागण ही उपेक्षित क्यों ? क्या वे नई अस्पृश्य जाति हो गए हैं जिनसे कोई भी संबंध नहीं रखना चाहता ?

एक और बात । माफिया और गुण्डा समाज में ‘भाई’, ‘दादा’, ‘अन्ना’ शब्द ही प्रचलित हैं । ‘मामा’, ‘काका’, ‘चाचा’, ‘बाबा’ कभी भी प्रयोग में नहीं लाए जाते हैं । शब्द एक ही है, बस अमुक व्यक्ति और माफिया के जन्मस्थान पर निर्भर करते हुए कोई एक विशेष शब्द चुन लिया जाता है । इससे एक फायदा होता है । ‘भाई’ कहने से एक भ्रातृभाव आता है, सभी सहकर्मी समान स्थल पर आ जाते हैं और सभी माफियाबन्धु परम सौहार्द्र के साथ सौहार्द्र-नाश के कार्य में लग सकते हैं ।

फिर भाई-बहनों की एक अन्य प्रजाति भी है जिन्हें आमतौर पर मुँहबोली बहन कहा जाता है । वैसे बोला तो मुँह से ही जाता है, सो संबंध को गुरुतर बनाने के अतिरिक्त मुँह का और तो कोई औचित्य नजर नहीं आता । मेरे एक सीनियर ने मुझसे पूछा — “भाई अमित, यह मुँहबोला भाई-बहन का क्या मतलब है ? हमारे बंगाल में तो ‘दादा-दीदी’ करते रहते हैं और फिर एक दिन शादी करके आ जाते हैं ।” मैंने कहा — “वह अलग है । आप जैसा कह रहे हैं, वैसे ही हमारे यहाँ भी होता है । लेकिन मुँहबोले सम्मानित और मान्यताप्राप्त संबंध है ।” “तो कोई अनुष्ठान या समारोह होता है क्या ?” “नहीं, नहीं होता , बस बोल दिया, हो गया ।” “तो फिर तो वही बात हुई !” बहुत चेष्टा करने पर भी मैं नहीं समझा पाया, क्योंकि खुद मुझे भी ठीक से नहीं पता था । फिर ज्यादा बहस भी नहीं कर सकता था क्योंकि इससे कई ऐतिहासिक महान आत्माओं का शायद असम्मान होता ।

मजे की बात यह है कि मुँहबोला पति या पत्नी नहीं होता । शायद कभी होता होगा । अब तो नहीं होता । यह मानक पद केवल भाई-बहनों को प्राप्त है । और कितना विश्वास । अजीब देश है यह । मैं जोर देकर कह सकता हूँ कि यह परंपरा स्त्रियों ने ही आरंभ की होगी । भारतवासी भाई-बहनों को मैं जितना समझता हूँ उसके चलते मैं कह सकता हूँ कि स्त्रियाँ ही राखी भिजवाती हैं । पुरुष होता तो मंगलसूत्र भिजवाता . . .

ऐसा ही एक फलसफा आमिर खान ने दिल फिल्म मेें दिया था । एक जेब में गुलाब और दूसरे में राखी । मान गई तो ठीक है, अगर चप्पल उतारने को झुकी, तो राखी निकाल लेना ! समय-दूरी-वेग का अत्यधिक सूक्ष्मता से आकलन किया था उन्होंने ।

वैसे जो कुछ भी हो, इस परंपरा से प्रेम ही तो बढता है न । फिर यदि प्रकृति के निर्णय का सम्मान करने के साथ ही किसी को भाई अथवा बहन कहकर यदि अपने परिवार में किसी रिक्त स्थान की पूर्ति कर ली जाए तो क्या बुरा है । लेकिन एक बात और है, प्रभेद तो रह ही जाता है । सगे भाई-बहनों जैसे आलिंगन करने, चूमने, बाल नोंचने और मार-पिटाई करने की स्वतंत्रता नहीं रहती है । इसके बावजूद, आज के समय में सभी पारिवारिक संबंध जब उपेक्षित ही किए जाते हैं तो जो थोडा-बहुत कहीं से मिल रहा हो बटोर लेने में ही बुद्धिमानी है ।

मेरा निजी विचार पूछें तो प्रेम करने के लिए किसी संबंध में बाँधने की आवश्यकता तो नहीं है । फिर किसी न किसी की कमी तो व्यक्ति को सदैव परेशान करती ही रहती है । सच है, संसार में कोई भी संबंध ऐसा नहीं है जिसके बिना काम न चल सके ।

भाई-बहनों की बात चले और राखी की बात न आए, यह तो नहीं हो सकता । मजे की बात यह है कि समस्त भारत में शायद केवल यही एक त्यौहार है जिसके उद्मगम के बारे में किसी को ठीक से पता नहीं । यह कहा जाता है कि रानी कर्णावती ने हुमायूँ को राखी भेजी और उन्होंने सम्मान किया । लेकिन इससे केवल यही पता चलता है कि उस समय भी यह त्यौहार और परंपरा थी । लेकिन शुरुआत कहाँ और कैसे हुई इस बारे में एकमत नहीं है ।

वैसे राखी की बात करें तो यही त्यौहार है जो दूरसंचार के माध्यम से भी संभव है । मतलब कि राखी भिजवा दो और  बदले में उपहार भिजवा दो । दिवाली के पटाखे और होली के रंग तो नहीं भिजवाते — क्या पता कोई रासायनिक हथियार हो ! सेवईं न भिजवाने का कारण आसान है — उसका तरल पदार्थ होना । जबसे सार्स आया लोग एक दूसरे से दूरी बनाने लगे और ईद हो या होली अब शायद ही कोई दूसरों को गले लगाता होगा । सभी धर्मों के धर्मगुरुओं को यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि लोग अपना स्वास्थ्य प्रमाण पत्र गले में लटका कर आएँ ।

वैसे दूध का धुला कोई भी नहीं है । मेरे पुराने मित्रों को याद होगा हमारे छात्रावास के दिन । रोज सवेरे सफाई मण्डल की बहनों को आना होता था, लेकिन वे स्वेच्छा का अनुसरण करती थीं । लेकिन राखी के दिन समय से पहले ही दरवाजा पीटकर, ठोककर, तोडकर, सोते हुओं को जगाकर कमरा साफ करने लगती थीं, चाहे अभी आधे घण्टे पहले ही साफ किया गया हो । और फिर ‘दादा-दादा’ कहकर 100-500 रुपए माँग लेती थीं । छात्रों का रुदन यह कि अपनी स्वयं की बहन की शक्ल देखे तो सदियाँ बीत गईं । और यह साल में केवल एक दिन की बहनें हैं ।

लेकिन धागे में जोर तो है भाई । इतिहास के स्नातक आपको बताएँगे कि किस प्रकार बंगाल विभाजन के समय एक-दूसरे को राखी बाँधकर सामाजिक बन्धुत्व को मजबूत किया गया था । फिर हुमायूँ का स्मरण तो कर ही चुके हैं ।

चलिए अपनी संस्कृति के एक और आयाम के बारे में बताकर आज की बातचीत समाप्त करता हूँ । हमारे पूर्वाञ्चल में राखी और भैया-दूज के जैसे एक अन्य त्यौहार मनाया जाता है । गोवर्धन पूजा । देवताओं पर आश्रित रहने के स्थान पर अपने स्वयं के सामर्थ्य पर विश्वास करने के लिए कृष्ण ने जोर दिया था । हमारे यहाँ इस दिन सभी बहनें मंदिर जाकर गोवर्धन भगवान की आराधना करती हैं और प्रार्थना करती हैं — “हे भगवन्, मेरा भाई अपंग हो जाए, उसका स्वास्थ्य नष्ट हो, वह दरिद्र हो, उसकी आयु घट जाए . . . ” आदि । इसी प्रकार से ब्रह्माण्ड भर की सभी बददुआएँ देने के बाद अंत में कहती हैं — “हे भगवान, मैंने जो कुछ कहा है उसका विपरीत हो ।” “ऐसे घुमाकर कहने की क्या जरूरत, सीधे-सीधे बोलो न !” मेरे ऐसा कहने पर दीदी ने मेरे गाल खींचकर कहा — “ऐसे ही होता है लल्लू ।” “लेकिन अगर भूल गई बोलना तो ?” मैंने चिंतित होकर पूछा । उन्होंने कहा — “कुछ नहीं होगा ।” और प्रसाद मेरे मुँह में ठूँस दिया ।

।। इति ।।

** इस लेख की रचना गत वर्ष की थी । उल्लिखित व्यक्तियों में से कई भाई-बहन अब हमारे बीच नहीं रहे । ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें ।

12 thoughts on “हम सब भारतवासी भाई-बहन हैं !

  1. neelakshij

    He he, Amit, I remembered that day when you considered me as your sister
    saying that looking at me you remember your didi 😉😊
    Good article, keep it up👏

    Best,
    Neelakshi

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    1. Pradyot Post author

      मुझे बहुत खुशी है कि आपको यह लेख पसंद आया । आशा है आपसे नियमित संपर्क बना रहेगा । आप ब्लॉग पर अन्य लेख भी देख सकते हैं । हिन्दी लेखों के लिए यहाँ देखें। अथवा Top Menu > Blog > Hindi

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  2. Poonam Sharma

    Great expression, Amit.
    Indian culture, family values, history, politics, human emotions, all touched in a humorous vein.
    Kudos.

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    1. Pradyot Post author

      Thank you so much madam! Your words mean a lot as they come from the teacher who had taught me aesthetics and intricacies of language 🙂

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    1. Pradyot Post author

      धन्यवाद प्रदीप भाई । आपके शब्द सदैव उत्साहवर्द्धन करते हैं ।

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