कुछ 2-4 साल पहले एक विशेष बंगाली उपन्यास पढने को मिला । उपन्यास वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया था । कहानी में पति-पत्नी अलग हो चुके थे, माँ फ्रांस में बस चुकी थीॆ, और बेटा जो अब 25 वर्ष के आसपास था, अपने पिता के साथ रहता था । पिता-पुत्र में मैत्रीपूर्ण संबंध थे जो कि अन्यथा भारतीय समाज में विरले ही देखे जाते हैं । जो भी हो, उन दोनों के बीच हर रात को खाने के आसपास किसी न किसी बात पर वाद-विवाद होता ही रहता था । और अधिक याद नहीं । लेकिन हाँ, ऐसे ही एक विवाद के समय बेटे ने अपने पिता को एक बहुत ही सुंदर कहानी सुनाई थी, जो मुझे थोडी-बहुत याद है । उसे मैं आपके सम्मुख प्रस्तुत करना चाहता हूँ । कहने की आवश्यकता नहीं कि कहानी का सार रचनाकार का ही है, मात्र शब्द ही मेरे हैं । साथ ही, यह अनुवाद नहीं है, बस सारांश समझ लीजिए । कृपया त्रुटियों को क्षमा करें ।
एक वृद्ध हर रोज सुबह सैर के लिए जाया करते थे । एक दिन उनके मन में आया कि आज कोई नया रास्ता लिया जाए । सो वे चलते-चलते एक तालाब के पास पहुँचे । तालाब के आसपास बहुत ही कम लोग थे, इसलिए बहुत ही शांति थी । साथ ही हलकी हवा भी बह रही थी । वृद्ध को वह वातावरण बहुत अच्छा लगा ; वह वहीं रुक गए और बहुत धीरे-धीरे चलते हुए तालाब का चक्कर लगाने लगे । चलते-चलते वह तालाब के दूसरे किनारे पहुँचे जहाँ उन्हें बहुत-से मेंढक दिखाई दिए । इतने सारे मेंढक उन्होंने एक साथ कभी नहीं देखे थे, सो वह रूक गए । मेंढक बहुत ही उत्तेजित स्वर में जोर-जोर से चिल्ला रहे थे, जो वृद्ध को सामान्य नहीं लगा । कुछ देर के बाद उन्होंने झुककर अपने पास खडे मेंढक से उस उत्तेजनापूर्ण माहौल का कारण पूछा । मेंढक ने बताया कि अगले दिन उन लोगों का चुनाव होना है, और उसी के बारे में विचार-विमर्श हो रहा है । वृ्द्ध के लिए यह प्रसंग एकदम नया और रोचक था, सो उन्होंने और अधिक जानने की इच्छा व्यक्त की । इस पर मेंढक ने बताया –
— हाँ, वही तो । इसीलिए तो वाद-विवाद हो रहा है । लेकिन साथ ही इस समय युवा मेंढक भी ज्यादा हैं, और भी कई बातें हैं जिनको देखते हुए यह सिद्धान्त अपनाया गया है ।
थोडी देर में फैसला हो गया और मेंढक की बताई हुई स्पर्धा ही निश्चित कर दी गई । वृद्ध ने मेंढक से अगले दिन स्पर्धा प्रत्यक्ष देखने की इच्छा व्यक्त की और उससे विदा ली ।
फिर अगले दिन वृद्ध यथासमय तालाब के किनारे पहुँच गए और स्पर्धा शुरू होने की प्रतीक्षा करने लगे । फिर से मेंढक जोर-जोर से चिल्लाने लगे । वृद्ध के पूछने पर पास खडे एक दूसरे मेंढक ने बताया कि कई मेंढकों ने स्पर्धा से नाम वापस ले लिया है और कुछ अन्य मेंढक आयोजकों से दूरी को कम करने की माँग कर रहे हैं । लेकिन इन सभी विरोध के बाद भी कुछ देर में स्पर्धा शुरू हो गई और करीब 50 मेंढक दौडने लगे । परंतु कई मेंढक कुछ दूर जाकर ही वापस लौटने लगे जिससे प्रतियोगी मेंढकों की संख्या कम होती चली गई । न भागने वाले मेंढक दौडने वाले प्रतिभागी मेंढकों को भी रुक जाने के लिए कह रहे थे क्योंकि स्पष्टतः इस दौड में जान का जोखिम था । सो जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे अधिकतर मेंढक वापस आने लगे । अंत में केवल एक दुबला-पतला-मरियल-सा मेंढक ही बचा रहा । दूसरे मेंढकों ने उसे बहुत समझाया-बुझाया कि “दूरी बहुत ज्यादा है”, “फिर पहाडों की चढाई भी है”, “तालाब में भीगने पर थकान और भी ज्यादा हो जाएगी”, “रहने दो”, “नहीं कर पाओगे”, “क्यों जान जोखिम में डालते हो”, वगैरह । लेकिन इतना समझाने के बाद भी छोटा मेंढक बिना रुके दौडता ही रहा । वृद्ध को खुशी, चिंता तथा उत्सुकता हुई, और वह भी उस छोटे मेंढक का अनुसरण करने लगे । करीब दो घण्टे के बाद छोटा मेंढक स्पर्धा के नियमानुसार पूरी दूरी तय करके — जिसका वृ्द्ध ने मेंढक समूह के सामने प्रत्यक्ष साक्षी की हैसियत से प्रमाण दिया — वापस लौट आया । छोटे मेंढक को सरपंच चुन लिया गया और पद-हस्तांतरण के समारोह की तैयारी होने लगी । वृद्ध ने अपने मित्र मेंढक के सामने छोटे मेंढक से मिलने की इच्छा जाहिर की ।
— क्या बात करते हैं बाबूजी ? आपको पता नहीं, वह छोटा मेंढक तो बहरा है ! कुछ भी सुन नहीं सकता ।
|| इति ||
photo credit: Rhacophorus nigropalmatus, Wallace’s flying frog – Khao Sok National Park via photopin (license)
यदि किसी को उपन्यास और लेखक का नाम ज्ञात हो तो कृपया सूचित करें ।
bahut badhiya. Shaayad behre ho kar hi kaam kiya jaa sakta hai aaj ke paripeksh mein!
हाँ दीपक भाई । पीछे खींचने वाले लोग बहुत हैं समाज में ।
good …
देख लीजिए अनिल भाई, हमारी हिन्दी अभी भी दुरुस्त है न । नजर रखिएगा ।
hindi me aap kafi achcha likhte hai .. kafi achchi kahani thi.
धन्यवाद रुपेश, आपकी प्रतिक्रिया और राय अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं ।