
शहीद मिनार, ढाका विश्वविद्यालय, बांगलादेश ।
1952 में आज ही के दिन ढाका विश्वविद्यालय, जगन्नाथ कॉलेज, तथा ढाका मेडिकल कॉलेज के छात्रों ने बंगाली को पूर्व पाकिस्तान की दो राष्ट्रीय भाषाओं में से एक बनाने की माँग करते हुए प्रदर्शन किया । ढाका उच्च न्यायालय के सामने उस प्रदर्शन पर पुलिस ने (जो उस समय पाकिस्तान के अधीन थी) गोली चलाकर कई छात्रों की निर्मम हत्या कर दी । उस घटना को स्मरण करते हुए वर्ष 2000 से यह दिन संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है (स्रोत – विकिपीडिया) ।
कैसे परिभाषित करेंगे आप मातृभाषा को ? जिस भाषा के समाज में आप पैदा हुए, पले बडे, अथवा जिस भाषा में आपकी माँ आपसे बात करती थी, अथवा माँ की अपनी भाषा ? शिशु के जन्म होने के पहले से ही माँ उसके साथ बात करने लगती है और विद्यालय की औपचारिक शिक्षा आरम्भ होने के बहुत पहले से ही जीवन के लिए आवश्यक शिक्षा देने लगती है — और वह सब मातृभाषा में ही । फिर लगभग 25 वर्ष बाद वह शिशु स्वयं अभिभावक की भूमिका में आ जाता है और यह प्रक्रिया स्वयं को दुहराती रहती है । सो स्पष्ट है कि मातृभाषा ही व्यक्ति को उसके पूर्वजों के विचार, संस्कृति और सभ्यता से अविच्छिन्न भाव से जोडे रखती है ।
अक्सर मुझे इस टिप्पणी का सामना करना पडता है — ‘क्या आपको अमुक भाषा नहीं आती ? ओह, मुझे आप पर बहुत दया आती है, आप नहीं जानते कि आप क्या खो रहे हैं !’ मुझे ऐसा नहीं लगता । मेरे विचार से सबसे दु:खद स्थिति यह नहीं है कि आपको कोई विशेष भाषा नहीं आती, अपितु यह कि आपको अपनी मातृभाषा नहीं आती ।
इसे परिहास ही तो कहेंगे कि लोग दूसरों को अपनी भाषा सीखने पर विवश करते हैं और इसके लिए मारपीट, दंगा-फसाद और सार्वजनिक सम्पत्ति की हानि करने से भी नहीं हिचकते । किंतु साथ ही अपने ही लोगों में अपनी भाषा को प्रोत्साहित करने की चेष्टा नहीं करते । आपको शायद विश्वास न हो, और यदि यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव न होता तो शायद मैं भी नहीं मानता, लेकिन हर दूसरे दिन मेरा किसी न किसी ऐसे व्यक्ति से साक्षात् हो ही जाता है जो अपनी ही भाषा के प्रति उदासीन है । यह केवल हिन्दी ही नहीं अपितु मळयालम, मराठी, उडिया आदि भाषाओं के लिए भी सत्य है । और इसके लिए उनके द्वारा दिए गए कारण बहुत ही हास्यास्पद होते हैं — ‘मुझे आती थी लेकिन अभ्यास में न रहने से भूल गया’, ‘असल में घर छोडे हुए काफी समय हो गया न, कभी पुणे में रहता था कभी चेन्नई में, इसी से मळयालम याद नहीं’ आदि । अब क्या कहें ! मेरे विचार से यदि घर में ही बच्चा अपनी माँ से कहने लगे — ‘मदर, आय वाण्ट सम वॉटर’, तो समझ लीजिए कि स्थिति विकट है ।
शायद आपको रोजगार के लिए अंग्रेजी अथवा जर्मन भाषा का प्रयोग करना पडता है, अथवा आपका कार्यक्षेत्र किसी दूसरी भाषा के समाज में है और उस समाज में अपना स्थान बनाने के लिए आपने स्थानीय भाषा सीखी और उसका प्रयोग कर रहे हैं । कारण कुछ भी हो, अपनी मातृभाषा से पूरी तरह से संपर्क तोडने का मुझे तो कोई औचित्य नजर नहीं आता । आखिर सभी संबंध मात्र लाभ पर ही तो आधारित नहीं होते । साथ ही इसके लिए संस्कृति, साहित्य और सभ्यता की दुहाई देने की भी आवश्यकता नहीं है । यदि आपकी संस्कृति प्राचीन और समृद्ध नहीं भी होती, तो भी जिस भाषा में आपने जन्म लिया और पले-ब़डे उसके साथ संबंध विच्छिन्न नहीं करना चाहिए । मैं अक्सर कहता हूँ कि भाषाओं का व्यवहार मनुष्यों की भाँति ही होता है । इसी आधार पर प्रश्न किया जा सकता है कि विवाह होने के बाद, परिवार में नए सदस्य आने के बाद, अथवा नए मित्र बनने पर क्या आप अपनी माँ से संपर्क तोड देते हैं ? नहीं । और स्पष्टतः इसके लिए माँ का ऐश्वर्यसम्पन्न अथवा धनवान होने की आवश्यकता नहीं है ।
भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला के एक वैज्ञानिक अपना एक संस्मरण सुनाते हैं । एक बार उन्हें कार्य के सिलसिले में जर्मनी या फ्रांस अथवा ऐसे ही किसी देश में जाना पडा जहाँ अंग्रेजी का प्रचलन नहीं है । देर से पहुँचे थे, रात हो गई थी, और हलकी-हलकी बारिश भी शुरू हो गई थी । ‘क्या करें, कहाँ जाएँ’ सोचकर दिशाभ्रम-सा होने लगा था । कोई सहायता करने वाला नहीं मिल रहा था । अचानक उनके कान में दूर से आता हुआ एक छोटा-सा वाक्य पडा — ‘हाँ माँ, बस आधे घण्टे में पहुँच रहा हूँ ।’ वह व्यक्ति बारिश में फँस गया था और अपनी माँ को फोन पर आश्वस्त कर रहा था । आप अंदाज लगा सकते हैं कि हमारे वैज्ञानिक बंधु पर उस ध्वनि का क्या प्रभाव पडा — ठीक वैसा ही जैसा आप भीड में अपनी माँ का चेहरा देखकर अनुभव करते हैं । वह तुरन्त दौड कर पहुँचे और उस ‘सहोदर’ की सहायता से उस संकट से निकले ।
अक्सर कॉलेज से लौटकर मैं अपनी माँ से देर तक बातचीत करता था । और बात करते करते ही कब नींद आ जाती पता ही नहीं चलता । माँ भी नहीं टोकती । फिर जब थोडी देर बाद नींद टूटती तो कहती, ‘ऐसा कौन है जिसे माँ के पास नींद नहीं आती । जा, अब ठीक से सो जा ।’ कुछ ऐसा ही मातृभाषा के साथ भी है । उसे पढने, लिखने, बोलने और व्यवहार करने से आप एक वात्सल्यमयी सुरक्षा की छाँव का अनुभव करते हैं जिसकी कीमत का आकलन भी नहीं किया जा सकता । सुनने में तो कष्टकर है, लेकिन प्राकृतिक नियमों के हाथों विवश होकर जब माँ हमारा साथ छो़ड देती हैं, तब उनकी सिखाई हुई भाषा ही उनके रिक्त स्थान को भरने का किञ्चित प्रयास करती है ।
इस अवसर पर श्री मैथिलीशरण गुप्त की रचना का विशेष उल्लेख करना चाहूँगा —
मेरे रोम रोम में मानों सुधा-स्रोत तब बहते हैं ।
सब कुछ छूट जाय मैं अपनी भाषा कभी न छो़डूँगा,
वह मेरी माता है उससे नाता कैसे तोडूँगा ।।
कहीं अकेला भी हूँगा मैं तो भी सोच न लाऊँगा,
अपनी भाषा में अपनों के गीत वहाँ भी गाऊँगा ।
मुझे एक संगिनी वहाँ भी अनायास मिल जावेगी,
मेरा साथ प्रतिध्वनि देगी कली कली खिल जावेगी ।।
मेरा दुर्लभ देश आज यदि अवनति से आक्रान्त हुआ,
अन्धकार में मार्ग भूल कर भटक रहा है भ्रान्त हुआ ।
तो भी भय की बात नहीं है भाषा पार लगावेगी,
अपने मधुर स्निग्ध, नाद से उन्नत भाव जगावेगी ।। **
photo credit: damien_thorne International Mother language Day 2014_1 via photopin(license)
माँ एवं मातृभाषा से प्यार किसे नहीं है। मातृभाषा पर बहुत ही सुंदर आलेख अमित जी।
अच्छा लेख। हम अपनी मातृभाषा पर गर्व है। कृपया मेरी पोस्ट पढ़ें: https://indroyc.com/2012/02/21/international-mother-language-day/
ur right…. Jis bhasha mai maa baat karti hai woh matri bhasha hoti hai. so true.
आजकल मेरे बच्चे हिंदी बोलना भूल गए हैं – सारा दिन स्कूल, फिर दोस्त जिन्हें हिंदी नहीं आती – कुछ घंटे जो घर में रहते हैं उसमें आधे से ज़्यादा समय होमवर्क में निकल जाता है – चिंता होती है – समझते हैं पर बोलते नहीं – पर मैं निरंतर प्रयास करती रहूंगी और मैं जानती हूँ कि वो अपनी मातृभाषा के समीप आएँगे। आपके विचार अच्छे लगे – भाषा मत भूलो , संस्कृति मत भूलो पर लोगों को बांटों मत
Beautiful Amit.
बेहतरीन आलेख।