रचनाकार – गौरव मिश्र
इंद्रासन प्राप्त करो तुम
अस्थिर अशांत इस जग में
क्यों मूक बना सोता है,
यह रत्नविभूषित जीवन
क्यों इसे व्यर्थ खोता है ?
तू नहीं जानता पागल
यह समय कभी नहीं रुकता,
यह काल अमिट अविनाशी
पद चिह्न छोडता चलता ।
स्थिर गतिमान चक्र यह
नित परिवर्तन करता है,
जो नहीं साथ में चलते
यह उन्हें कुचल देता है ।
नदियों से सीखो चलना
अपना पथ स्वयं बनाना,
मीलों तक चलते बढते
अंतिम लक्ष्यांतर पाना ।
नदियों जैसे हो दानी
यह सबकी प्यास बुझाती,
यह छोड बचत की आशा
सर्वस्व समर्पण करती ।
अनुनाद पूर्ण उद्घोषण
शंखों का नाद करो तुम,
है कुछ भी नहीं असम्भव
इंद्रासन प्राप्त करो तुम ।
नित करो आत्म-अवलोकन
फिर देखो कमी कहाँ है,
वारिद से ऊँचे उठकर
फिर देखो जमीं कहाँ है ।
उत्तुंग शिखर बढ-चढकर
हैं देखो तुम्हें बुलाते,
जब है शरीर यह नश्वर
तुम हो क्यों इसे सताते ?
ये भोग व्यर्थ की माया
भोगी को बहुत सताती,
तुम योगी बनकर देखो
है माया दूर भागती ।
हैं कर्म अनादि सनातन
तुम उनको उच्च बनाना,
यह सृष्टि करे आराधन
पदचिह्न छोडकर जाना ।
आते तो सब हैं जग में
जाते तो सब हैं जग से,
यह कृत्य चले निरंतर
निर्वाद देश देशांतर ।
हो अवरोहण तेरा ऐसे
न हुआ युगों में जैसे,
पश्चिम से रवि हों निकले
पूरब में तू ही चमके ।

गौरव मिश्र भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर (IIT Kanpur) के सिविल इंजीनियरिंग प्रभाग में पी.एच.डी. छात्र हैं ।
Very nice composition. Congratulations to Gaurav.
behtareen khoobsoorat rachnatmak abhivyakti
Superb composition.