I am writing to you after a long gap. A sudden unanticipated inflow of work kept me occupied for the last two weeks. Such unexpected change in work schedule is part of scientific research. The work is not yet finished, but now I am getting used to the extra work. It also means that a lot of routine work has piled up — cleaning, organizing, refreshing social contacts, and yes, getting updated with what is going on in the world. So I sat down and browsed through the large pile of newspapers looking for anything interesting that I might have missed. Continue reading
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एक सरकारी कर्मचारी की मौत : आन्तोन चेखोव (अनुवाद)

आन्तोन पावलोविच चेखोव (1860-1904), स्रोत – विकिमीडिया
एक सुन्दर शाम को, लगभग उतना ही सुदर्शन एक्जिक्यूटर, इवान द्मित्रिच चेर्व्याकोव, कुर्सियों की दूसरी पंक्ति में बैठा था और दूरबीन से “कॉर्नविल की घंटियाँ” (ओपेरा) देख रहा था । वह देख रहा था और स्वयं को आनन्द की पराकाष्ठा पर बैठा अनुभव कर रहा था । लेकिन अचानक . . . कहानियों में अक्सर यह “लेकिन अचानक” मिलता है । लेखकों का कहना सच है: जीवन अप्रत्याशित घटनाओं से कितना भरपूर है ! लेकिन अचानक उसका चेहरा बिगडा, आँखें घूम गईं, साँसें रुक गईं . . . उसने आँखों से दूरबीन हटाई, झुका और . . . आपछू !!! छींका, जैसा कि आप देख ही रहे हैं । छींकना किसी को भी कहीं भी मना नहीं है । लोग छींकते हैं, पुलिस अधिकारी छींकते हैं, और कभी कभी तो गोपनीय सलाहकार भी । सभी छींकते हैं । चेर्व्याकोव जरा भी शर्मिंदा नहीं हुआ, रुमाल से पोंछा और एक सज्जन व्यक्ति की तरह अपने चारों तरफ देखा: कहीं उसने अपनी छींक से किसी को परेशान तो नहीं किया ? Continue reading
Book Review : ‘The White Marble Burzi And Other Stories’ By Sharat Kumar
In the fast paced life of these days, it is getting more and more difficult to devote time for literature. Under such circumstances, short stories come to our rescue, and by their peculiar format, provide us means to stay in touch with literature, and satiate our aesthetic and intellectual needs. The advantages brought by short stories are two fold. First, there is a sense of achievement as we can complete reading each piece in whatever time is available to us. Secondly, just in case the work is not up to our expectations, the time and effort lost would be less as compared to that in the case of novels. These are some of the reasons why I am attracted towards short stories in different languages, and from different cultures. Continue reading
ठुकेमारी और मुखेमारी : सुकुमार राय (अनुवाद)

सुकुमार राय (1887-1923), स्रोत – विकिमीडिया
पहलवान मुखेमारी का बडा नाम था – कहते हैं कि उसके जैसा पहलवान और कोई नहीं था । ठुकेमारी सचमुच का बडा पहलवान था, मुखेमारी का नाम सुनकर उसकी ईर्ष्या का कोई अंत न था । आखिर एक दिन जब ठुकेमारी से रहा नहीं गया, तो वह कम्बल में नौ मन आटा बाँधकर, उस कम्बल को कंधे पर डालकर मुखेमारी के घर की ओर चल दिया ।
रास्ते में एक जगह बहुत प्यास और भूख लगने पर ठुकेमारी ने कम्बल को कंधे से उतारा और एक पोखर के किनारे आराम करने के लिए बैठ गया । Continue reading
बिना टिकट (अभिव्यक्ति)

वो (साहित्य कुञ्ज)

मित्रों, आपको यह सूचित करते हुए मुझे अत्यधिक हर्ष हो रहा है कि मेरी रचना (शीर्षक “वो”) ऑनलाइन हिन्दी साहित्यिक पत्रिका ‘साहित्य कुञ्ज’ में प्रकाशित हुई है । आप सभी के निरंतर उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद । आशा है कि आपका स्नेह सदैव ऐसे ही बना रहेगा । रचना पढने के लिए लिंक
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मेंढक
कुछ 2-4 साल पहले एक विशेष बंगाली उपन्यास पढने को मिला । उपन्यास वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया था । कहानी में पति-पत्नी अलग हो चुके थे, माँ फ्रांस में बस चुकी थीॆ, और बेटा जो अब 25 वर्ष के आसपास था, अपने पिता के साथ रहता था । पिता-पुत्र में मैत्रीपूर्ण संबंध थे जो कि अन्यथा भारतीय समाज में विरले ही देखे जाते हैं । जो भी हो, उन दोनों के बीच हर रात को खाने के आसपास किसी न किसी बात पर वाद-विवाद होता ही रहता था । और अधिक याद नहीं । लेकिन हाँ, ऐसे ही एक विवाद के समय बेटे ने अपने पिता को एक बहुत ही सुंदर कहानी सुनाई थी, जो मुझे थोडी-बहुत याद है । उसे मैं आपके सम्मुख प्रस्तुत करना चाहता हूँ । कहने की आवश्यकता नहीं कि कहानी का सार रचनाकार का ही है, मात्र शब्द ही मेरे हैं । साथ ही, यह अनुवाद नहीं है, बस सारांश समझ लीजिए । कृपया त्रुटियों को क्षमा करें ।
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A Folk Tale

I will tell you one story.
The narrative is neither similar to that of Upanishadic tales, nor to Puranic stories. I do not have any authentic credits to make, nor do I know the origin of this story. It is very popular in U.P. I assume that it could be called a folk tale.
It happened like this: Continue reading
A Love Story

A young boy of about 16 years of age, whispers to a young girl of nearly the same age:
मंसूर

— जरा-सा सिर आगे कीजिए, बस-बस, इतना ही। तो किस क्लास में पहुँच गए जनाब?
हर शहर-देहात की तरह हमारे कस्बे में भी नाई की कई दुकानें थीं। मंसूर मियाँ उनमें से एक थे। यदि यह नाम आपके सम्मुख एक टूटा-फूटा चेहरा, हलकी दाढी, सफेद कुर्ता-पाजामा लाता है, तो आप गलत समझ रहे हैं। असल में 30-35 वर्ष का युवा कितना सुदर्शन हो सकता है, मंसूर मियाँ इसकी मिसाल थे — स्वस्थ गठा हुआ शरीर, हमेशा सीधे तनकर खडा हुआ, कमीज पैण्ट के अंदर खोंस कर पहनी हुई, बाल सलीके से काढे हुए, दिन के किसी भी समय चेहरे पर आलस्य का नाम नहीं। Continue reading