
आन्तोन पावलोविच चेखोव (1860-1904), स्रोत – विकिमीडिया
एक सुन्दर शाम को, लगभग उतना ही सुदर्शन एक्जिक्यूटर, इवान द्मित्रिच चेर्व्याकोव, कुर्सियों की दूसरी पंक्ति में बैठा था और दूरबीन से “कॉर्नविल की घंटियाँ” (ओपेरा) देख रहा था । वह देख रहा था और स्वयं को आनन्द की पराकाष्ठा पर बैठा अनुभव कर रहा था । लेकिन अचानक . . . कहानियों में अक्सर यह “लेकिन अचानक” मिलता है । लेखकों का कहना सच है: जीवन अप्रत्याशित घटनाओं से कितना भरपूर है ! लेकिन अचानक उसका चेहरा बिगडा, आँखें घूम गईं, साँसें रुक गईं . . . उसने आँखों से दूरबीन हटाई, झुका और . . . आपछू !!! छींका, जैसा कि आप देख ही रहे हैं । छींकना किसी को भी कहीं भी मना नहीं है । लोग छींकते हैं, पुलिस अधिकारी छींकते हैं, और कभी कभी तो गोपनीय सलाहकार भी । सभी छींकते हैं । चेर्व्याकोव जरा भी शर्मिंदा नहीं हुआ, रुमाल से पोंछा और एक सज्जन व्यक्ति की तरह अपने चारों तरफ देखा: कहीं उसने अपनी छींक से किसी को परेशान तो नहीं किया ? लेकिन तभी वह शर्मिंदा हुआ । उसने देखा कि एक बुजुर्ग ने, जो उसके आगे कुर्सियों की पहली पंक्ति में बैठा था, बडी मेहनत से अपना चाँद और गर्दन दस्ताने से पोंछे और कुछ बुदबुदाया । बुजुर्ग को चेर्व्याकोव पहचान गया — सिविल जनरल ब्रिज़झालोव, जो परिवहन विभाग में काम करता था ।
“मैंने उस पर छींटे डाल दिए ! – चेर्व्याकोव ने सोचा । – मेरा प्रमुख अधिकारी (बॉस, चीफ़) नहीं है, दूसरे विभाग का है, लेकिन फिर भी भद्दा तो लगता है । माफ़ी माँगनी चाहिए ।”
चेर्व्याकोव खाँसा, शरीर को आगे झुकाया और जनरल के कानों में फुसफुसाया:
– माफ़ कीजिएगा जनाब, मैंने आप पर छींटे डाल दिए . . . मैंने इत्तेफाक से . . .
– कोई बात नहीं, कोई बात नहीं . . .
– भगवान के लिए, माफ़ कीजिएगा । देखिए मैं . . . मैं नहीं चाहता था !
– आह, कृपया बैठिए ! सुनने दीजिए !
चेर्व्याकोव उलझन में पड गया, बेवकूफ़ के जैसे मुस्कराया और प्रदर्शन की ओर देखने लगा । देखने लगा, लेकिन उसने (पहले जैसा) आनन्द अनुभव नहीं किया । उसे चिन्ता सताने लगी । अंतराल (विरति, इंटरवल) के समय वह ब्रिजझालोव की ओर बढा, उसके पास गया, और संकोच को दबाकर बुदबुदाया:
– जनाब, मैंने आप पर छिडक दिया . . . क्षमा कीजिएगा . . . देखिए मैं . . . इसलिए नहीं कि . . .
– आह, बस कीजिए . . . मैं कब का भूल गया, और आप अब भी उसी पर ! – जनरल ने व्यग्रता से निचला होंठ हिलाकर कहा ।
“भूल गया, लेकिन उसकी आँखों में कडवाहट है, – चेर्व्याकोव ने अविश्वास से जनरल को देखते हुए सोचा । – और बात भी करना नहीं चाहता । उसे समझाना जरूरी है कि मैं बिलकुल नहीं चाहता था . . . कि यह प्रकृति का नियम है, और वह सोचता है कि मैं थूकना चाहता था । अभी नहीं सोच रहा, लेकिन बाद में ऐसा सोचेगा ! . . .”
घर पहुँचकर चेर्व्याकोव ने पत्नी से अपनी नासमझी के बारे में बताया । पत्नी ने, जैसा चेर्व्याकोव को लगा, घटना को बहुत ही हलके भाव से लिया; वह केवल घबरा उठी, लेकिन बाद में जब उसे पता चला कि ब्रिजझालोव “पराया” है (दूसरे विभाग का है) तो शांत हो गई ।
– लेकिन फिर भी तुम जाओ और माफ़ी माँग लो – उसने कहा । – नहीं तो वह सोचेगा कि तुम्हें सार्वजनिक जगह पर सही व्यवहार करना नहीं आता !
– हाँ, वही तो है ! मैंने माफ़ी माँगी, लेकिन वह कुछ अजीब ही है . . . एक भी मतलब का शब्द नहीं बोला । बात करने का समय ही नहीं ।
अगले दिन चेर्व्याकोव ने नई यूनिफॉर्म पहनी, दाढी बनाई और ब्रिज़झालोव को स्पष्टीकरण देने के लिए गया . . . जनरल के दफ़्तर पहुँचने पर उसने वहाँ बहुत से मिलने वालों को देखा, और मिलने वालों के बीच खुद जनरल को देखा, जो लोगों की अर्जियाँ लेना शुरू कर चुका था । अर्जी करने वाले कुछ लोगों से सवाल-जवाब करने के बाद जनरल ने आँखें उठाईं और चेर्व्याकोव को देखा ।
– कल “आर्कादी” में, अगर आपको याद हो, जनाब, – एक्जिक्यूटर (चेर्व्याकोव ) ने बताना शुरू किया, – मैंने छींका और . . . गलती से छींटे डाल दिए . . . क्षमा. . .
– क्या बकवास है . . . भगवान जाने क्या ! आपको क्या चाहिए ? – जनरल अगले अर्जी करने वाले की ओर मुडा ।
“बात करना नहीं चाहता ! – चेर्व्याकोव ने सोचा, और उसका चेहरा पीला पड गया । – मतलब कि गुस्सा हो गया है । . . . नहीं, इसे ऐसे नहीं छोड सकते . . . मैं उसे समझाता हूँ . . .”
जब जनरल ने आखिरी अर्जी करने वाले व्यक्ति से बातचीत समाप्त की और अंदर के कमरे की ओर जाने लगा, तो चेर्व्याकोव ने उसके पीछे कदम बढाए और बुदबुदाना शुरू किया:
– जनाब ! अगर आपको तकलीफ़ देने की गुस्ताख़ी कर सकता हूँ जनाब, तो एकदम दिल से, पश्चाताप व्यक्त करना चाहता हूँ । . . . जान बूझकर नहीं, आप खुद समझने की कोशिश कीजिए !
जनरल का चेहरा दयनीय-सा हो गया और उसने हाथ खडे कर दिए ।
– आप भी मज़ाक कर रहे हैं, महाशय ! – उसने दरवाजे के पीछे गायब होते हुए कहा ।
“इसमें भला मज़ाक कैसा ? – चेर्व्याकोव ने सोचा । – इसमें तो किसी भी तरह का मज़ाक एकदम नहीं है ! जनरल है, मगर समझ नहीं सकता ! जब ऐसा है, तो मैं भी ऐसे शेखीबाज़ के सामने और माफ़ी नहीं माँगूगा ! भाड में जाए ! उसे ख़त लिख दूँगा, लेकिन चल कर नहीं जाऊँगा ! भगवान् कसम, बिलकुल नहीं !”
घर जाते हुए चेर्व्याकोव ने ऐसा ही सोचा । उसने जनरल को ख़त नहीं लिखा । सोचा, सोचा, लेकिन वह ख़त बना नहीं पाया । अगले दिन समझाने के लिए खुद ही जाना पडा ।
– कल मैं आपको तकलीफ़ देने आया था जनाब, – जब जनरल ने उसकी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि उठाई तो उसने बुदबुदाना शुरू किया, – मज़ाक करने के लिए नहीं, जैसा कि आप कहना चाह रहे थे । मैंने माफ़ी इसलिए माँगी क्योंकि छींक कर छींटे . . . और मैंने तो मज़ाक करने का सोचा भी नहीं । क्या मैं मज़ाक कर भी सकता हूँ ? अगर हम लोग मज़ाक करने लगेंगे, तब तो किसी भी तरह का, मतलब, लोगों के प्रति सम्मान ही . . . नहीं रहेगा . . .
– निकल जाओ !! – नीले पड गए जनरल ने एकदम से काँपते हुए चिल्ला कर कहा ।
– जी ? – डर के मारे सकपकाए हुए चेर्व्याकोव ने फुसफुसा कर पूछा ।
– निकल जाओ !! – पैर पटकते हुए जनरल ने दोहराया ।
चेर्व्याकोव के पेट में मरोड से उठने लगे । बिना कुछ देखे, बिना कुछ सुने, वह दरवाजे की ओर पीछे हटा, सडक पर निकल आया और खुद को धकियाता हुआ-सा चलने लगा . . . यंत्रवत् चलते हुए घर पहुँचकर, बिना यूनिफॉर्म उतारे, वह दिवान पर लेटा और . . . मर गया ।
टिप्पणी – मूल रूसी से अनुवादित । पूरी कहानी का शाब्दिक अनुवाद करने के बाद मैंने हिन्दुस्तानी की लय और शैली के अनुसार कहानी को तराशा है । आज अनुभव किया कि अनुवाद कितना कठिन कार्य है !
संदर्भ – एक सरकारी कर्मचारी की मौत (Смерть Чиновника: Smert Chinovnika), आन्तोन चेखोव, Lib.ru
अनुवाद करके किसी भी लेख को पढ़ना उसके बाद उसको समझने की कोशिश करना सही मे मुश्किल काम है ।अपने ही लिखे हुये को अनुवाद करने पर अर्थ का अनर्थ होता है । लेकिन सोचने वाली बात ये है कि जिस भाषा पर आपका नियंत्रण नही है उसे कैसे समझा जाये ।
इसीलिए तो दूसरी भाषाएँ सीखी जाती हैं ! आखिर यह कोई असम्भव कार्य तो नहीं है ।
आपकी बात बिलकुल सही है ,लेकिन दूसरी भाषा को सीखने के लिये समय निकालना रोज की भागादौड़ी के बीच मे थोड़ा असंभव सा लगता है।
मैं आपसे सहमत नहीं हूँ । मैंने सामान्य व्यक्ति की तरह ही रोजगार और जीवन चलाते हुए ही 3 भारतीय (बंगाली, मराठी और गुजराती) और 3 विदेशी (जर्मन, रूसी, फ्रांसीसी) भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया है । हिन्दी और अंग्रेजी तो पहले से ही आती थी । किसी भी अन्य क्षेत्र की भाँति यहाँ भी व्यक्ति की इच्छाशक्ति सर्वोपरि है । देखें यह page ।
सीधे-साधे व्यक्ति की मार्मिक कहानी। सुंदर अनुवाद अमित जी। वाकई आप बधाई के पात्र है की आप, आठ भाषाओं के ज्ञात है।
धन्यवाद राकेश भाई ! आपके शब्द हमेशा हमारा उत्साह बढाते हैं ।
Sundar anuvad. Aap itani bhashaayen jaanate hain! Truly admirable!
धन्यवाद सविता 🙂
नि:शब्द हूँ। 🙏
Nice…
Yes Sir, this is one of my favourite Chekhov stories.
Nice translation..