जाने दीजिए

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मुझे याद है दूरदर्शन पर दिखाया गया वह नाटक। जी नहीं, सीरियल नहीं, नाटक। पूर्ण कथानक तो ठीक से याद नहीं, किन्तु कुछ अंशों की धुंधली-सी स्मृति आज भी है।

एक गाँव में एक बुढिया रहती थी। काफी मिलनसार और व्यवहार कुशल। गाँव के सभी तीज-त्यौहार, समारोह, अनुष्ठानों में बढ-चढकर भाग लेती थी। चूँकि वह सबसे वरिष्ठा थी, इसीलिए उसी के सुझाव और संकेत सर्वोपरि माने जाते थे। इस पर उसे गर्व था।

एक बार उस गाँव में किसी कन्या का विवाह अनुष्ठान था। सभी लोग सज-धजकर जाने को तैयार थे। बुढिया भी तैयार होकर अपनी पडोसन की बहू को कहने गई जिससे वह जाते समय उसे भी साथ ले ले। बहू अभी तैयार नहीं हुई थी, इस पर बुढिया जल्दी मचाने लगी। बहू झल्ला गई और बोली–

—    क्यों जल्दी मचा रही हो, थोडी देर हो जाएगी तो कौन-सा पहाड टूट जाएगा?
—    ऐसे क्यों कहती हो? पहाड तो नहीं टूटेगा, लेकिन रस्मों में देरी हो जाएगी।
—    रस्में होती रहेंगी, कोई हमारे लिए रुका थोडे ही रहेगा।
—    और नहीं तो क्या। मेरे बिना इस गाँव में कोई तीज-त्यौहार पूरा हुआ है? मैं नहीं रहूँगी तो कौन बताएगा कि कैसे क्या करना है?
—    ऐसा तुम्हें लगता है, लेकिन असल में जंरा ध्यान से देखो तो किसी को भी तुम्हारी जरूरत नहीं है। तुम्हीं हो जो हर किसी के काम में घुसी चली जाती हो।
—    ऐसा क्यों कहती हो बहू? जानती नहीं हो क्या कि इस गाँव वाले मुझे कितना प्यार, मेरा कितना सम्मान करते हैं, मेरी कितनी जरूरत है उन्हें?
—    प्यार करते हैं, सम्मान करते हैं, मानती हूँ। लेकिन उन्हें तुम्हारी जरूरत है, तुम्हारे बिना उनका कोई काम पूरा नहीं होगा, तुम्हारा ऐसा मानना गलत है। अगर विश्वास न हो तो आज इस ब्याह में मत जाओ। फिर देखो कोई तुम्हें बुलाने आता है या नहीं। तुम्हारे बिना कोई रस्म रुकती है या नहीं।

—    हाँ हाँ, यही ठीक है। देखना, कैसे दौडे आएँगे मुझे लेने के लिए।

लेकिन कोई नहीं आया। बुढिया बहुत देर तक बैठी रही, इस प्रतीक्षा में कि कोई बुलाने आए। लेकिन कोई नहीं आया। धीरे-धीरे पूरा गाँव खाली हो गया। फिर और थोडी देर के बाद, जो लोग गए थे वे लौटने लगे। विवाह समारोह सम्पन्न हो गया था। हर आने-जाने वाले से बुढिया पूछती जाती थी, लेकिन किसी ने भी किसी रस्म में किसी भी प्रकार की असुविधा का जिक्र नहीं किया, और न इस बात का संकेत दिया कि वहाँ बुढिया की कमी महसूस की जा रही थी। बुढिया को स्थिति का वास्तविक परिचय हुआ। बहू ने कई प्रकार से उसे सांत्वना देने की चेष्टा की, किन्तु बुढिया अंदर से टूट चुकी थी।

नाटक के किसी भी भाग में दर्शक को किसी भी प्रकार की नैतिक शिक्षा देने की चेष्टा नहीं की गई थी। और न ही स्पष्ट शब्दों में दार्शनिक विचारों का प्रतिपादन किया गया था। तथापि विषय इतना विशिष्ट था, संचालन और अभिनय इतना दक्ष था, कि बाल्यावस्था में देखे जाने के बावजूद मैं आज तक उस नाटक को पूरी तरह से भूल नहीं पाया हूँ। और आज भी दैनन्दिन जीवन में उस नाटक के संदेश का विभिन्न प्रकार से प्रयोग करने की चेष्टा किया करता हूँ।

हम समाज, परिवार तथा कार्यक्षेत्र में अपने स्थान को अत्यधिक महत्व देते हैं। वस्तुतः इसका प्रधान कारण अहंकार ही होता है। हम यह मानना चाहते हैं कि परिवार, समाज तथा कार्यक्षेत्र के लिए हम कितने अधिक आवश्यक हैं, अपरिहार्य हैं। किन्तु असल में ऐसा होता नहीं। परिवार और समाज को हमारी आवश्यकता नहीं होती, अपितु हमें ही समाज और परिवार की आवश्यकता होती है। यह परिवार और यह समाज हमें एक पहचान, एक परिचय देता है जिसके बिना हम अज्ञात व्यक्ति बनकर रह जाते हैं। बडी भयावह होती है वह स्थिति। इसी से हम इस परिचय को, और इस परिचय को देने वाले को जकडे रखना चाहते हैं। अन्यथा आप ही सोचिए, माता-पिता के देहावसान के पश्चात् क्या संतान का जीवन नष्ट हो जाता है? कदापि नहीं। अपितु प्रति वर्ष अनगिनत लोग इस संसार को त्याग देते हैं, लेकिन विश्व नहीं रूकता। कार्य और प्रगति नहीं रूकती। हमारे पैदा होने से पहले भी संसार चल रहा था, और हमारे जाने के बाद भी चलता रहेगा।

एक अन्य प्रश्न है कि आखिर किसी व्यक्ति को कितने मित्रों की आवश्यकता होती है? आपने यह तो देखा ही होगा कि किस प्रकार कई लोग अपने चारों तरफ चाटुकारों और व्यर्थ के लोगों की भीड जमा किए रहते हैं। इन लोगों को आपसे कोई मतलब नहीं होता, उनकी रूचि बस इसमें है कि कहीं से मुफ्त की चाय मिल जाए, थोडी परनिन्दा-परचर्चा का आनंद मिल जाए। न तो इनके सान्निध्य से आपकी कोई मानसिक या चारित्रिक उन्नति होती है, और न आवश्यकता के समय में इनमें से कोई भी आपको दिखाई ही देगा। और हाँ, किसी भी प्रकार के भ्रम में मत रहिए — एक दिन यदि आप अपनी असमर्थता व्यक्त कर दें अथवा यदि आपसे कुछ दिन इनका साक्षात्कार न हो, तो यह किसी दूसरे सज्जन का दामन थाम लेंगे। बन्धु, मानवीय संबंध तथा मैत्री अत्यंत पवित्र वस्तु है। इस प्रकार के व्यक्तियों को मित्र का नाम देकर मैत्री को कलुषित मत कीजिए। मैत्री करने और निभाने में समय लगता है, मेहनत लगती है। अन्य को पूर्ण रूप से समझना पडता है। यदि आप अनिश्चय की स्थिति में हों, तो मेरी तरह इस बुढिया वाली परीक्षा कीजिए। कुछ दिन आप भी उन लोगों से मत मिलिए। फिर देखिए कितने लोग आपको ढूँढते हुए आते हैं। और जो लोग आते हैं, वे किसी कार्यसाधन के लिए आते हैं या आपका कुशलक्षेम जानने के लिए। बन्धु, मैत्री सामञ्जस्य पर आधारित है। इसे दोनों व्यक्तियों को निभाना पडता है।

मात्र मानवीय संबंध ही नहीं, अपितु जीवन के सभी क्षेत्रों में आप इस सूत्र का प्रयोग कर सकते हैं। एक सप्ताह आप फेसबुक मत खोलिए, फिर देखिए कि आपने वस्तुतः कुछ खोया क्या? एक महीने या एक वर्ष तक समाचार पत्र मत पढिए, फिर बताइए आपका कितना नुकसान हुआ। दोस्त, संसार बहुत बडा है। आनंद अपरिसीम है, आनंद के आयाम अगणित हैं। अपने जीवन को आबद्ध मत कीजिए। देखने, सीखने, जानने के लिए बहुत कुछ अभी बाकी है। स्वयं को वंचित मत कीजिए। अपने जीवन से अनावश्यक वस्तु और व्यक्ति को दूर कीजिए, तभी आप अपने लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्वों को पहचान पाएँगे, और उनके लिए समय निकाल पाएँगे। जीवन बहुत छोटा है, जबकि करने, देखने और सीखने के लिए बहुत कुछ है। अत्यधिक तथा अनावश्यक दायित्व अपने कंधों पर लेना कोई बुद्धिमानी का कार्य नहीं है। जहाँ आपकी आवश्यकता न हो, वहाँ न ही जाएँ। अपने आत्मसम्मान की रचना अपने ही पैमाने पर करें, जिससे आपको किसी कृत्रिम परिचय की आवश्यकता ही न पडे। आप महान हैं और महत् कार्य करने की क्षमता रखते हैं।

टिप्पणी: आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि मेरी यह रचना अ़ॉनलाइन हिन्दी साहित्यिक पत्रिका हिन्दीनेस्ट में प्रकाशित हुई है ।

photo credit: IMG_45931 via photopin (license)

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