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मुझे अपनी मित्रमण्डली में चल रही एक विशेष विषय पर बातचीत याद आ रही है । आप तो जानते ही हैं, विवाहित मित्रों की एक ही तो समस्या होती है — अपने अविवाहित रह गए मित्रों का विवाह । और मेरी समस्या थी कि जब भी मैं किसी कन्या को पसंद आता, वह झट-से मुझे अपना भाई बना लेती — ‘तुम्हारी शक्ल मेरे भाई से मिलती है’ । फिर जैसे हिन्दू लोग मूर्ति को ईश्वर मानकर उसकी पूजा करते हैं, उसी प्रकार मुझे अपने भाई का प्रतीक मानकर राखी आदि बाँधने लगतीं । और हम न इधर के रहे न उधर के — असली भाई तो थे ही नहीं, और संबंधी भी बन नहीं पाए । जब असली भाई आ गया, तो हमें सुरेश वाडकर का गाना सुनने के लिए छोड दिया गया — साँझ ढले गगन तले हम कितने एकाकी . . . । Continue reading




यदि किसी से “जो गरजते हैं वो बरसते नहीं” का अर्थ उदाहरण देकर समझाने के लिए कहा जाए, तो मेरे विचार से अधिकांश लोग वेंकटेश प्रसाद और आमिर सुहेल के द्वन्द्व का वर्णन करेंगे । घटना है बीस साल पहले 15 मार्च 1996 की । कितनी आश्चर्यजनक बात है न, कि सभी ऐतिहासिक घटनाएँ हमारी स्मृति के रसातल से 20 साल बाद ही सतह पर आती हैं । ओ हेनरी की इसी शीर्षक की एक कहानी है, और विश्वजीत-अभिनीत एक हिन्दी फिल्म भी है । बहरहाल, हम बात कर रहे हैं 1996 की । 
यदि सोशल नेटवर्किंग साइटों पर होने वाले तर्कों को देखें तो लगता है कि हम लोगों के पास किसी भी समस्या का समाधान नहीं है । इससे अधिक बुरी बात यह है कि पुराने मुद्दे सुलझते नहीं, और नए मुद्दे आते जाते हैं । मुझे तो यहाँ तक लगता है कि हममें विचार करने की शक्ति का ही अभाव है । बात अनन्त काल तक तर्क करते रहने और किसी भी नतीजे तक न पहुँचने की नहीं है । बात है तर्कों और विचार-विमर्श की गुणवत्ता की । किसी भी मुद्दे पर समाज की प्रतिक्रिया पढकर अब झल्लाहट ही होती है । फिर राजनेताओं और मंत्रियों की भाषा शैली ! ध्यान से देखें तो पाएँगे कि अधिकतर बातों में अथवा टिप्पणी में कोई संदेश होता ही नहीं है । इस पर प्रश्न उठता है कि यदि हम किसी भी विषय पर तार्किक टिप्पणी ही न कर सकें अथवा दूसरे के तर्क को सुन-समझ ही न सकें तो फिर हमारी 15 वर्षों की शिक्षा का क्या लाभ ?